प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं? प्रकार, प्रबंधन, PDF [Natural resource in Hindi]

नमस्कार आज हम भूगोल विषय के महत्वपूर्ण अध्याय में से एक प्राकृतिक संसाधन के विषय में विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। इस अध्ययन के दौरान हम जानेंगे की प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं? प्राकृतिक संसाधन क्या है? प्राकृतिक संसाधन के प्रकार , प्राकृतिक संसाधन का प्रबंधन इत्यादि के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे। इस अध्याय से सम्बंधित अन्य बिन्दुओ पर भी ध्यान केंद्रित करते हुवे अध्ययन करेंगे। तो आइये शुरु करते हाँ आज का अध्याय प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं? प्रकार, प्रबंधन, PDF [Natural resource in Hindi]

संसाधन किसे कहते हैं?

ऐसे पदार्थ जो मानव के लिए उपयोगी हो या जिन्हें उपयोगी उत्पाद में रूपांतरित किया जा सके जिनके उपयोग किसी अन्य उपयोगी वस्तु के निर्माण में हो, उन्हें ‘संसाधन’ कहते हैं।

प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं?

प्रकृति से प्राप्त ऐसे उपयोगी संसाधन ‘प्राकृतिक संसाधन’ कहलाते हैं।

प्राकृतिक संसाधन क्या है?

प्रकृति से प्राप्त ऐसे उपयोगी संसाधन ‘प्राकृतिक संसाधन’ कहलाते हैं।

प्राकृतिक संसाधन के प्रकार

प्राकृतिक संसाधन निम्न दो प्रकार के हो सकते हैं-

1. जैविक संसाधन :-

– ये संसाधन प्राकृतिक रूप से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष माध्यम से हरे पादपों की प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा होते हैं।

– भोज्य पदार्थ, फल, काष्ठ, रबर, तेल, दुग्ध, दुग्ध-उत्पाद, मत्स्य, मांस तथा चमड़ा आदि को जैविक संसाधन कहते हैं।

– जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल व प्राकृतिक गैस) भी जैविक संसाधन है।

2. अजैविक संसाधन :-

– निर्जीव उत्पत्ति वाले प्राकृतिक संसाधन जैसे – खनिज पदार्थ, स्वच्छ जल, शैल, लवण तथा रसायन आदि अजैविक संसाधन कहलाते हैं।

– उपयोग एवं उपभोग होने के बाद पुन: निर्मित होने की क्षमता के आधार पर प्राकृतिक संसाधन दो प्रकार के होते हैं-

 (i) नवीकरणीय संसाधन

 (ii) अनवीकरणीय संसाधन

प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं? प्रकार, प्रबंधन, PDF [Natural resource in Hindi]

प्राकृतिक संसाधन का प्रबंधन

प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दक्ष एवं लाभदायक उपयोग ताकि पर्यावरण के माध्यम से गुणवत्तायुक्त मानव जीवन संभव हो सके।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के विशिष्ट उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

पारिस्थितिकीय संतुलन एवं जीवन सहायक तंत्र का रख-रखाव।

जैव विविधता संरक्षण।

सतत विकास।

1. खनिज प्रबंधन :

वे सभी प्राकृतिक पदार्थ जो भूमि के खनन से प्राप्त किये जाते हैं खनिज कहलाते हैं।
उदाहरण – लोहा, ताँबा, चाँदी, संगमरमर, कोयला आदि।
खनिज प्राकृतिक रवेदार, निश्चित रासायनिक संगठन और विशिष्ट संरचना वाले पदार्थ हैं।
इनमें कुछ खनिज एक ही तत्व से मिलकर बनते हैं।
जैसे – कार्बन, हीरा।
कुछ खनिज दो तत्वों के संघटन से निर्मित विशिष्ट संरचना वाले होते हैं। जैसे – सल्फर, लोहा।

भारत में खनिज का वितरण

खनिज, प्राकृतिक संसाधनों में सर्वाधिक मूल्यवान तत्व हैं।

भारत में खनिज प्रमुखत: 6 मेखलाओं में पाये जाते हैं –
1. झारखण्ड–उड़ीसापश्चिमी बंगाल मेखला:- यह मेखला भारत में उत्तर-पूर्वी पठारी प्रदेश में छोटा नागपुर, उड़ीसा, पं.बंगाल और छत्तीसगढ़ थे कुछ भाग में विस्तृत है। इसमें लौह-अयस्क, कोयला, मैंगनीज, अभ्रक, ताँबा आदि के विशाल भंडार हैं।

2. मध्यप्रदेश–छत्तीसगढ़आन्ध्रप्रदेशमहाराष्ट्र मेखला:- इसमें बॉक्साइट, चूना पत्थर, ग्रेनाइट, हीरा, लौहा अयस्क आदि खनिज प्रचुरता में पाए जाते हैं।

3. कर्नाटक – तमिलनाडु मेखला:- इसमें सोना, लौह अयस्क, मैंगनीज, लिग्नाइट, चूना पत्थर, क्रोमाइट आदि के विशाल भंडार हैं।

4. राजस्थानगुजरात मेखला:- इसमें यूरेनियम, मुल्तानी मिट्‌टी, एस्बेस्टस, संगमरमर, जिप्सम, नमक आदि की प्रधानता है।

5. केरल मेखला:- इसमें मोनोसाइट, इल्मेनाइट, गारनेट, चिकनी मिट्टी आदि प्रचुर मात्रा में है।

6. हिमालय मेखला:– इसमें ताँबा, कोयला, सीसा-जस्ता, टंगस्टन, चाँदी, क्रोमाइट आदि की संभावनाएँ हैं।

खनिजों का वर्गीकरण

धातु व लौह तत्व की प्रधानता के आधार पर खनिजों को धात्विक व अधात्विक खनिज में वर्गीकृत किया जा सकता है।

• धात्विक खनिज:- वे खनिज पदार्थ जिनमें धातु अंशों की प्रधानता पाई जाती है। इनमें अनेक अशुद्धियों का मिश्रण कहलाता है। ये ताप व विद्युत के सुचालक होते हैं। लौह तत्व की प्रधानता के आधार पर इन्हें लौह व अलौह खनिज में वर्गीकृत किया जाता है –

• लौह खनिज:- लोहा, मैंगनीज, टंगस्टन, क्रोमाइट आदि।
अलौह खनिज:- ताँबा, सीसा-जस्ता, सोना, बॉक्साइट, एल्यूमीनियम, रांगा आदि।

• अधात्विक खनिज:- जिन खनिज पदार्थों में धातु या धात्विक अंश नहीं पाए जाते हैं, उन्हें अधात्विक खनिज कहते हैं। इनमें अशुद्धियाँ अपेक्षाकृत कम पाई जाती है। ये विद्युत व ताप के कुचालक होते हैं। ये भुरभुरे होते हैं व प्रहार करने पर टूट जाते हैं।

• ईंधन संसाधन:- वे खनिज संसाधन, जो विद्युत व अणुशक्ति वाले होते हैं। जैसे – यूरेनियम, थोरियम, इल्मेनाइट आदि।

खनिजों की विशेषताएँ

खनिजों की कुछ आधारभूत विशेषताएँ निम्न हैं –
1. पृथ्वी पर इनका वितरण असमान है।
2. अधिकांश खनिज अनिश्चित व अनव्यकरणीय होते हैं।
3. अधिकतर खनिज भूगर्भ में होते हैं व इनके उत्खनन के लिए पूँजी व श्रम की आवश्यकता होती है।
4. कोई भी देश खनिजों के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं है।

धात्विक व अधात्विक खनिजों का वितरण

लौह अयस्क

लौह अयस्क अशुद्ध अवस्था में मिलता है, जिसे धमन भटि्टयों से पिघलाकर साफ किया जाता है।

• लौह अयस्क के प्रकार:- लौह अयस्क में लौह की मात्रा अलग-अलग होती है। जो 25 से 72 प्रतिशत तक होती है। लोहे की मात्रा के आधार पर इसके चार प्रकार हैं –
• मैग्नेटाइट:- इसमें लौह अंश 72 प्रतिशत तक होता है। लौह धातु की अधिकता के कारण इसका रंग काला व गहरा भूरा होता है। यह सर्वोत्तम किस्म का लौह है जो आग्नेय शैलों में पाया जाता है। मुख्यत: उड़ीसा, झारखंड।
यह मुख्यत: तमिलनाडु (सेलम, तिरुचिरापल्ली) कर्नाटक।

• हेमेटाइट:- इसमें लौह की मात्रा 60 से 70 प्रतिशत तक होती है। इसमें लौह धातु ठोस कण या चूर्ण रूप में पाई जाती है। इसका रंग लाल या भूरा होता है।

• लिमोनाइट:- इसमें लौह की मात्रा 30 से 60 प्रतिशत तक होती हैं। यह निम्न कोटि का अयस्क है। इसका रंग कुछ पीलापन लिए होता है।

• सिडेराइट:- इसमें लौह की मात्रा 10 से 48 प्रतिशत तक होती हैं। इसक रंग राख जैसा व हल्का भूरा होता है। यह निम्न कोटि का होता है।

• उपयोग:- सुई व कील से लेकर फर्नीचर, विशालकाय इंजन, वाहन, मशीन, जलपोत, विभिन्न संयंत्र आदि बनाए जाते हैं। लौह के अत्यधिक उपयोग के कारण वर्तमान युग ‘लौह-इस्पात युग’ कहलाता है।

2. वन प्रबंधन :-

वन एक महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन हैं। वर्ष 1952 में घोषित वन नीति के अनुसार देश की कुल भूमि के 33 प्रतिशत भू-भाग पर वन होने चाहिए। सरकारी प्रयासों व जन-चेतना से वर्तमान समय में देश में वन व वृक्षाच्छादित क्षेत्र देश के कुल क्षेत्रफल का 24.56% है।

देश में तापमान, वर्षा, मिट्‌टी, धरातल की प्रकृति में भिन्नता के आधार पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का पाया जाना स्वाभाविक है। भारत में पायी जाने वाली वनस्पति के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-

• सदाबहार वन – ये वन देश के उन भागों में पाए जाते हैं, जहाँ औसत वर्षा 200 सेमी. से अधिक तथा वार्षिक औसत तापमान 24º से. के लगभग रहता है।
क्षेत्र – पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल, अण्डमान-निकोबार द्वीपसमूह व उत्तरी-पूर्वी भारत में बंगाल, असम, मेघालय व तराई प्रदेश।
वृक्ष – रबर, एबोनी, महोगनी, रोजवुड, आम, ताड़ आदि। इन वृक्षों की ऊँचाई 30 से 45 मीटर होती है। वृक्षों की सघनता के कारण सूर्य का प्रकाश धरातल तक नहीं पहुँच पाता है।

• मानसूनी/पतझड़ी वन ये वन शुष्क मौसम में अपने पत्ते गिरा देते हैं। ये 100 सेमी. से 200 सेमी. तक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
क्षेत्र – उत्तरी पर्वतीय प्रदेश के निचले भाग, विध्यांचल व सतपुड़ा पर्वत, छोटा नागपुर का पठार व असम की पहाड़ियाँ, पूर्वी घाट का दक्षिणी भाग व पश्चिमी घाट का पूर्वी भाग आदि।
वृक्ष – साल, सागवान, नीम, चंदन, आम, शीशम, बाँस आदि।
इनकी लकड़ी अधिक कठोर नहीं होने के कारण आसानी से काटे व उपयोग किए जा सकते हैं।

• शुष्क वन – ये उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहाँ औसत वर्षा 50 सेमी. से 100 सेमी. के मध्य होती है।
क्षेत्र – दक्षिण- पश्चिम पंजाब, राजस्थान का पूर्वी भाग, दक्षिण-पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि।
• वृक्ष – बरगद, पीपल, बबूल, नीम, महुआ, खेजड़ा आदि। ये वृक्ष कम ऊँचे व स्थानीय महत्त्व के होते हैं।

• मरूस्थलीय वन – ये वृक्ष वन 50 सेमी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
क्षेत्र – दक्षिण-पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि।
वृक्ष – खैर, खजूर, खेजड़ा, नागफनी आदि।
इन वृक्षों में पत्तियाँ कम, छोटी व काँटेदार होती हैं।

• ज्वारीय वन – ये महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी आदि नदियों के डेल्टाई भागों में पाए जाते हैं। गंगा-बह्मपुत्र नदियों के डेल्टा में स्थित सुन्दरवन के ज्वारीय वन विशेष हैं।
वृक्ष – सुन्दरी, ताड़, नारियल, सेनोरीटा, रीजोफोरा आदि। इन वृक्षों की लकड़ी मुलायम होती है।

• पर्वतीय वन – ये वन दक्षिण भारत में महाराष्ट्र के महाबलेश्वर व मध्यप्रदेश के पंचमढ़ी, हिमालय के 1500 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं।
वृक्ष – मेघेलिया, रोडोडेड्रॉन, चीड़, फर, स्प्रूस, लार्च, मैपल, चैस्टनट आदि।
ये वृक्ष 15 से 18 मीटर ऊँचे होते हैं। इनकी पत्तियाँ घनी व सदाबहार होती हैं।

प्राकृतिक संसाधन किसे कहते हैं? प्रकार, प्रबंधन, PDF [Natural resource in Hindi]

वन संसाधन का महत्त्व

वन संसाधन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण जीव-जगत को भोजन, रोजगार व आश्रय प्रदान कर पोषण देते हैं। ये ‘राष्ट्रीय सम्पत्ति’ हैं इनके महत्त्व को सहज स्वाभाविक रूप से समझा जा सकता है- 

महत्व
प्रत्यक्ष लाभअप्रत्यक्ष लाभ
1. राष्ट्रीय आय का 2 प्रतिशत वन संसाधन से प्राप्त होता है।1. वर्षा में सहायक होते हैं।
2. लाखों व्यक्तियों को रोजगार मिलता है।2. मृदा अपरदन को रोकते हैं।
3. आदिवासियों का निवास स्थान।3. वनों के कारण जल धीमी गति से बहता है अत: बाढ़ के प्रभाव को कम करते हैं।
4. औद्योगिक विकास के लिए कच्चा माल प्राप्त होता है।4. कार्बनडाइ ऑक्साइड को भोजन रूप में ग्रहण कर शुद्ध ऑक्सीजन प्रदान करते हैं।
5. लघु वन उपज, जैसे- गोंद, बाँस, तेल आदि प्राप्त होते हैं।5. वृक्षों की पत्तियाँ गिरने से ह्यूमस का निर्माण होता हैं, जिससे मृदा की उर्वरकता बढ़ती है।


वनों का संरक्षण व प्रबन्धन

कृषि हेतु भूमि की निरंतर बढ़ती माँग, तीव्र औद्योगिकीकरण व शहरीकरण, अनियंत्रित चराई, स्थानान्तरित कृषि इत्यादि कारणों से वनों की निरंतर कटाई की जाती है जिससे ये बहुमूल्य संसाधन निरंतर कम होते जा रहे हैं। वनों से ही सभ्यता का विकास होता हैं अत: इनका संरक्षण आवश्यक है। वन संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाए किए जा सकते हैं-
1. वनों की गैर-कानूनी व अंधाधुंध कटाई पर सख्ती से रोक लगाई जानी चाहिए।
2. प्रत्येक क्षेत्र में न्यूनतम वन भूमि निर्धारित की जानी चाहिए।
3. वन अनुसंधान पर कार्य करना चाहिए ताकि कीड़े व बीमारी से वनों को बचाया जा सकें।
4. वनों के उपयोग व महत्ता के विषय में जनसामान्य को जागरुक किया जाए।
5. विभिन्न सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए।
6. सुरक्षित वनों के संरक्षण की उचित व्यवस्था की जाए।
7. चंदन की लकड़ी आदि इमारती लकड़ियों की तस्करी पर रोक लगाई जानी चाहिए।

 

3. घास स्थल प्रबंधन :-

– घास स्थल ऐसे बायोम हैं, जिनमें घासों एवं शाकों की प्रमुखता होती है, ये शाकाहारी जीवों के लिए चारा उपलब्ध कराते हैं।

– अत्यधिक शाखित रेशेदार जड़ तंत्र (Fibrous root system) के कारण ये अधिक स्थिर होते हैं परन्तु अत्यधिक चराई (Overgrazing), अपरदन (Erosion) एवं भूमि परिवर्तन (Conversion) के कारण घास स्थल नष्ट होते जा रहे हैं।

– निम्नलिखित उपायों द्वारा घास स्थलों का प्रबंधन संभव हैं-

 (a) चराई (Grazing) सीमित मात्रा में।

 (b) उत्पादकता कम करने वाली खरपतवार को हटाना।

 (c) उर्वरता बढ़ाने वाले फलीदार शाक का रोपण।

 (d) वर्षा ऋतु में नए पौधों की वृद्धि के समय चराई पर प्रतिबंध।

 (e) वैज्ञानिक तरीके से कृषि द्वारा मृदा व जल हानि को रोककर।

– विभिन्न घास भूमि बायोम –

 अर्द्ध-शुष्क :-

– स्टेपी – यूक्रेन एवं दक्षिण-पश्चिमी रूस

– वेल्ड – दक्षिण अफ्रीका

– कैम्पोस – ब्राजील

आर्द्र घास भूमि :-

– प्रेयरी – उत्तरी अमेरिका

– पम्पास – दक्षिण अमेरिका

– डाउन्स – ऑस्ट्रेलिया

– कैंटरबरी – न्यूजीलैण्ड

– पुस्टाज – हंगरी

4. मृदा प्रबंधन :-

मृदा भूमि की वह परत है, जो चट्‌टानों के विखण्डन, विघटन और जीवांशों के सड़ने-गलने से मिलकर बनती है। मृदा का निर्माण व गुण चट्‌टानों, जलवायु व वनस्पति पर निर्भर करता है।

रचना विधि के आधार पर मिट्‌टी को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. स्थानीय 2. विस्थापित।

• स्थानीय मृदा – वह मृदा जो अपने मूल स्थान पर ही विद्यमान चट्‌टानों के ऋतु क्रिया को प्रभाव से विखण्डित होने पर बनती है। स्थानीय मृदा कहलाती है।

• विस्थापित मृदा – अपरदन व निक्षेपणकारी तत्त्वों जैसे – पवन, नदी, हिमनद आदि से अपवाहित होकर विखण्डित चट्‌टानों से बनी हुई मिट्‌टी अपने मूल स्थान से हट जाती है, विस्थापित मृदा कहलाती है।
हमारे देश की विशालता व भिन्न प्राकृतिक स्वरूप के कारण विभिन्न प्रकार की मिटि्टयाँ पाई जाती हैं । मिट्‌टी की रचना व गुण के आधार पर मृदा का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

• कांप मृदा – इसे जलोढ़ मृदा भी कहते हैं। यह अत्यधिक उपजाऊ मृदा है व कृषि के लिए उपयुक्त है। उत्तर भारत के विशाल मैदान व तटीय मैदान कांप मिट्‌टी से निर्मित है। कांप मृदा नदियों के प्रवाह क्षेत्र व डेल्टाई भागों में पाई जाती है। यह मृदा लगभग 8 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली है। (लगभग 43 प्रतिशत) भौगोलिक परिस्थितियों व अवधि के आधार पर इसे खादर व बाँगर मिट्‌टी में वर्गीकृत किया जाता है। नवीन बाढ़ से निर्मित मैदान ‘खादर’ व प्राचीन व बाढ़ के ऊपरी भाग ‘बाँगर’ कहलाते हैं। कांप मृदा बारीक कणों वाली व ह्यूमस से युक्त होती है। फसलों के लिए उपयुक्त पोषण इनमें पाया जाता है। मुख्यत: फसल धान, गेहूँ, गन्ना आदि।  

• काली मिट्‌टी :- दक्षिणी भारत में लावा के जमकर ठण्डा होने व विखण्डित होने से इस मृदा का निर्माण हुआ है। यह लगभग 5 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली है। इसे ‘रेगुर मिट्‌टी’ भी कहते हैं। यह कपास की खेती के लिए उपयुक्त है। इसमें लोहा, एल्यूमीनियम, पोटाश व चूने का अंश पाया जाता है। सूखने पर यह मिट्‌टी कठोर हो जाती है व इसमें दरारें पड़ जाती हैं। इसमें खाद व सिंचाई की कम आवश्यकता होती है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग, गुजरात, पूर्वी राजस्थान आदि स्थानों पर यह पाई जाती है।

• लाल मृदा :- यह छिद्रदार मिट्‌टी होती है, इसमें आर्द्रता बनाए रखने की क्षमता नहीं होती है इसीलिए सिंचाई की आवश्यकता होती है। यह कम उपजाऊ मृदा है अत: इसमें खाद की आवश्यकता पड़ती है। लोहे की प्रधानता के कारण इसका रंग भूरा व लाल होता है। यह भारत के लगभग 5.18 लाख वर्ग क्षेत्र में विस्तृत है इसमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा जीवांश की कमी रहती है। यह मिट्‌टी छत्तीसगढ़, छोटानागपुर, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश के पूर्वी भाग, तमिलनाडु व कर्नाटक में मुख्यत: मिलती है। फसल में चावल, रागी, तंबाकू आदि।

• लैटेराइट मृदा :- यह मिट्‌टी उन क्षेत्रों में मिलती है जहाँ उच्च वर्षा व उच्च तापमान की स्थिति रहती है। पुरानी चट्‌टानों के विखण्डन से बनी इस मृदा में लोहा व एल्यूमीनियम की मात्रा अधिक रहती है लेकिन चूना, फॉस्फोरस, नाइट्रोजन आदि की कमी रहती है। अधिक वर्षा के कारण उपजाऊ कण बह जाते हैं अत: इस मिट्‌टी के क्षेत्र ऊसर हैं। मुख्यत: फसल चावल, रागी, काजू इत्यादि।
यह मुख्यत: पश्चिमी घाट, पूर्वी घाट के किनारे से राजमहल की पहाड़ियों तथा पश्चिम बंगाल से असम तक संकरी पट्‌टी के रूप में पाई जाती है। यह चाय, काजू, कहवा की कृषि के लिए उपयुक्त है।

• बलुई मृदा :- यह मिट्‌टी पश्चिमी राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ मरुभूमि में मिलती है। इसमें क्षारीय तत्त्वों की प्रधानता होती है। किन्तु नाइट्रोजन, ह्यूमस आदि तत्वों की कमी रहती है। यह शुष्क व रन्ध्रयुक्त होती है। सिंचाई सुविधा उपलब्ध हो जाने पर यह मिट्टी उपजाऊ होती है व कृषि के लिए उपयुक्त है।

•​​​​​​​ पर्वतीय मृदा :- यह उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में मिलती है। यह मोटे कणों वाली व कंकड़-पत्थर से युक्त मिट्‌टी होती है। इस मिट्‌टी की परत पतली होती है। इसमें ह्यूमस व चूने के तत्त्व कम होते हैं। यह मिट्‌टी अम्लीय होती है। इसमें चाय व आलू की कृषि की जाती है। यहाँ सीढ़ीनुमा खेत बनाकर चावल की कृषि की जाती है।

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मृदा से सम्बन्धित समस्याएँ व संरक्षण

• मृदा से सम्बन्धित समस्याएँ – मृदा वनस्पतियों के विकास का आधार है। मृदा की समस्याओं में प्रमुख इस प्रकार हैं-
1. मृदा प्रदूषण, कीटनाशकों व रसायनों के अत्यधिक उपयोग से मृदा प्रदूषित हो रही है।
2. मृदा अपरदन – मृदा का कटाव दो रूपों में होता है-
परत अपरदन व नाली अपरदन।
जब मृदा अपरदन जल के साथ संपूर्ण परत के रूप में बह जाता हैं तो वह परत अपरदन कहलाता है। मूसलाधार वर्षा, वृक्षों का कटाव, भीषण बाढ़, पशुचारण आदि के कारण मिट्‌टी की परत कटकर जल व हवा के साथ बहकर निकल जाती है।
3. मृदा का लवणीय होना – अत्यधिक सिंचाई वाले क्षेत्रों में भूमि के अंदर का लवण जल ऊपर की ओर आ जाता है जिससे भूमि लवणीय हो रही है।

मृदा संरक्षण के उपाय

मृदा संरक्षण कार्यक्रम के अंतर्गत मिट्‌टी के कटाव को रोकना व मृदा को प्रदूषित होने से बचाना है। मृदा संरक्षण के लिए निम्नलिखित विधियाँ काम में ली जा सकती हैं-
1. वृक्षारोपण
2. नालियों पर बाँध बनाना तथा अवरोध लगाना
3. पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीनुमा खेत बनाना
​​​​​​​4. पशुचारण को व्यवस्थित करना
5. ढालू जमीन पर समोच्च रेखीय जुताई करना
6. नदियों पर बाँध बनाना
7. गोबर, कम्पोस्ट व हरी खाद का उपयोग करना।
8. कुछ समय के लिए भूमि को परती छोड़ना
9. फसल चक्रीकरण को अपनाना।

अन्य –
मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना –19 फरवरी 2015 को राजस्थान के सूरतगढ़ से मिट्‌टी की खराब होती गुणवत्ता जाँच करने और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने हेतु मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की शुरुआत की गई। – ध्येय वाक्य – स्वस्थ धरा, खेत हरा।

5. जल प्रबंधन :-

मानव का कोई भी कार्य व पर्यावरण की कोई भी प्रक्रिया जल के बिना संभव नहीं है। यह एक अनिवार्य, सीमित और संवेदनशील संसाधन है। जल प्राप्ति का मुख्य स्रोत वर्षा है। भारत द्वारा वर्षा का दो-तिहाई भाग जल दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त किया जाता है। वर्षा की मात्रा, अवधि व वितरण अनिश्चित होने के कारण प्रति वर्ष वर्षा की अनिश्चितता बनी रहती है।

भारत में जल संसाधन की उपलब्धता

पृथ्वी का 71% भाग जल से ढका है जिसमें कुल जल का केवल 3 प्रतिशत भाग ही अलवणीय है व शेष भाग लवणीय है। इस 3 प्रतिशत भाग का बहुत छोटा भाग मानव उपयोग के लिए उपलब्ध है।
भारत में विश्व के 2.45% भू भाग पर 4% जल संसाधन व 17.5% मानव संसाधन पाया जाता है।

भारत में जल के दो स्रोत हैं
1. धरातलीय जल
2. भूमिगत जल

धरातलीय जल

वह जल जो वर्षण द्वारा नदियों, झीलों, तालाबों व बांधों आदि से प्राप्त होता है, धरातलीय जल कहलाता है।

इनसे लगभग 1869 घन किमी. जल प्राप्त होता है। धरातलीय जल स्रोत में नदियाँ प्रमुख हैं। अपवाह की दृष्टि से भारत के नदी तंत्र को दो भागों में बांटा जा सकता है-
1. हिमालय नदी तंत्र
2. प्रायद्वीपीय भारत का नदी तंत्र
नदियों द्वारा प्राप्त कुल जल का लगभग 60% हिमालय की नदियों से व शेष भाग मध्य भारत व प्रायद्वीपीय नदियों से प्राप्त होता है।

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— हिमालय का प्रवाह तंत्र
हिमालय की अधिकतर नदियों का उदˎगम हिमनदों से होता है। ये नदियाँ गहरी, संकरी व तंग घाटियों का निर्माण करती हैं। इसे तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. सिंधु नदी तंत्र  सिंधु व उसकी सहायक नदियाँ झेलम, चिनाब, सतलज, व्यास व रावी नदियाँ आती हैं। सिंधु जल समझौते के अनुसार, भारत सिंधु, झेलम व चिनाब के 20% जल का व सतलज, रावी व व्यास के शत-प्रतिशत जल का उपयोग कर सकता है।

2. गंगा-यमुना नदी तंत्र – इसमें गंगा-यमुना व उसकी सहायक नदियाँ रामगंगा, घाघरा, गंडक, कोसी, चम्बल आदि आती हैं।

3. बह्मपुत्र नदी तंत्र  इसमें बह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियाँ तीस्ता, दिहांग, दिबांग, कामेंग, धनसिरि, बराक आदि आती हैं।

— हिमालय नदी तंत्र की विशेषताएँ

  • पूर्ववर्ती व अनुवर्ती प्रकार की नदियाँ।
  • सदावाहिनी
  • जालीदार, समानान्तर व विसर्पाकार अपवाह तंत्र।
  • युवावस्था, अत: अत्यधिक अपरदनकारी।
  • विभिन्न स्थलाकृतियों, जैसे- गॉर्ज, जलप्रपात व गोखुर झील का निर्माण।
  • अत्यधिक अवसाद व निम्न ढ़ाल के कारण डेल्टाओं का निर्माण।

— प्रायद्वीपीय भारत का अपवाह तंत्र – इन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है-
बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली।
अरब सागर में गिरने वाली।
इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी इत्यादि बंगाल की खाड़ी में व नर्मदा, ताप्ती, माही, साबरमती अरब सागर में अपना जल लेकर जाती हैं।

— विशेषताएँ –
1. ये अत्यधिक प्राचीन हैं जो अपने आधार तल को प्राप्त कर चुकी हैं और सामान्यत: ढाल के अनुरूप बहती हैं।
2. वर्षा आधारित, अत: अधिकांश नदियाँ मौसमी।
3. समानान्तर अपवाह तंत्र का विकास।
4. धरातलीय संरचना कठोर होने के कारण अपेक्षाकृत छोटे बेसिन का निर्माण करती हैं।
5. जलप्रपात व क्षिप्रिकाओं का निर्माण करती हैं, अत: जल विद्युत उत्पादन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। 

प्रायद्वीपीय नदियों में अंतर
अरब सागर में गिरने वाली नदियाँबंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ
1. इसमें नर्मदा व ताप्ती को छोड़कर अन्य नदियाँ छोटी हैं।1. इसमें अधिकतर नदियाँ लम्बी हैं।
2. नर्मदा व ताप्ती भ्रंश घाटी में बहती हैं।2. भ्रंश घाटी में नहीं बहती हैं।
3. ये नदियाँ एश्चुरी का निर्माण करती हैं।3. ये नदियाँ डेल्टाओं का निर्माण करती हैं।
4. जल विद्युत उत्पादन की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण।4. जल विद्युत के साथ-साथ सिंचाई व नौपरिवहन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है।
हिमालय व प्रायद्वीपीय भारत की नदियों में अंतर
हिमालय की नदियाँप्रायद्वीपीय भारत की नदियाँ
1. हिमनदों से उदˎगम अत: सदावाहिनी।1. अधिकतर नदियाँ वर्षा आधारित अत: मौसमी हैं।
2. युवावस्था की नदियाँ, अत: अत्यधिक अपरदन करती हैं।2. ये प्रौढ़ावस्था को प्राप्त कर चुकी हैं व कठोर चट्टानी भागों से बहती हैं अत: अपरदन नहीं के बराबर होता है।
3. इनका प्रवाह तंग पूर्वगामी है।3. इनका प्रवाह तंत्र अनुगामी है।
4. नौ-परिवहन के योग्य हैं।4. कठोर चट्‌टानी भाग के कारण नौगम्य नहीं है।
5. इनमें अपेक्षाकृत भयंकर बाढ़ आती है।प्रौढ़ावस्था को प्राप्त अत: बाढ़ नहीं आती है।

भूमिगत जल

भारत में वर्षण से प्राप्त कुल 4000 घन किमी. जल में केवल 790 घन किमी. जल ही भूमिगत जल के रूप में प्राप्त होता हैं। इसमें जल धरातल के नीचे प्रवेश्य स्तर तक पहुँचकर कठोर व अभेद्य चट्‌टानों पर एकत्रित होता है। यही जल कुएँ व नलकूप खोदकर प्राप्त किया जाता है।
भूमिगत जल की प्राप्ति आग्नेय व कायान्तरित कठोर चट्टानों से नहीं होती है। अत: इसकी मात्रा भी प्रदेशानुसार भिन्न होती है।

सतलज-गंगा-बह्मपुत्र बेसिन में रन्ध्रयुक्त कोमल चट्टानें होने से 44 प्रतिशत भूजल उपलब्ध होता है। दक्कन के पठार व राजस्थान के पूर्वी भागों में, जहाँ कठोर चट्‌टानें मिलती हैं, वहाँ जल शैल-सन्धियों में मिलता है अत: कुएँ-नलकूप भी इनके भराव क्षेत्र के आस-पास खोदे जाते हैं।

जल का उपयोग

जल एक अनिवार्य, सीमित और अति संवेदनशील संसाधन हैं। इसकी उपयोगिता निम्न है-
1. पेयजल
2. सिंचाई हेतु उपयोग
3. औद्योगिक गतिविधियों में उपयोग
4. जल परिवहन का सस्ता व प्रदूषण मुक्त साधन है।
5. जल विद्युत का उत्पादन
6. मत्स्य पालन हेतु।
इसके अलावा दैनिक कार्यों, निर्माण कार्यों आदि में जल की उपयोगिता सिद्ध है।

जल प्रदूषण की समस्या – जल प्रदूषण से उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता निरंतर कम होती जा रही है। औद्योगिक, कृषि व घरेलू अपशिष्ट पदार्थों के निस्सरण से जल निरंतर प्रदूषित होता जा रहा है। अत: जल की निरंतर बढ़ती माँग व घटती आपूर्ति से इस जीवनदायी संसाधन के संरक्षण व प्रबन्धन हेतु सुझावों का विवरण निम्न प्रकार है-

1. जल प्रदूषण का निवारण-
A. कृषि हेतु रसायनों व कीटनाशकों का निम्न उपयोग
B. जैविक खेती को बढ़ावा
C. उद्योगों से प्रदूषित जल का शोधन कर जल स्रोतों में निकासी या पुन: उपयोग।

2. जल का पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग-
A. कम गुणवत्ता वाले जल का उपयोग शीतलन व अग्निशमन में किया जा सकता है।
B. नगरीय क्षेत्रों में वाहन आदि धोने के लिए प्रयुक्त जल का उपयोग बागवानी में किया जा सकता है।

3. जल संभरण प्रबन्धन – उपलब्ध जल का दक्ष उपयोग।
A. बहते जल को रोकना व बाँध, तालाब आदि के द्वारा भौम जल का संचयन करना।
B. केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा जल संरक्षण हेतु कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए अटल भूजल योजना, राजस्थान सरकार द्वारा जल स्वावलम्बन योजना आदि।

वर्षा जल का संचयन :- भारत में परम्परागत रूप से वर्षा जल झीलों, तालाबों, कुण्डों व टांकों में संचित किया जाता है। इससे पानी की उपलब्धता बढ़ने से भूमिगत जलस्तर ऊँचा बना रहता है।

प्राकृतिक संसाधन संरक्षण के उपाय

1. जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावी नियंत्रण किया जाना चाहिए।
2. संसाधनों के समुचित उपयोग हेतु नियोजन में समग्र दृष्टिकोण का विकास होना चाहिए।
3. मानव व पर्यावरण के मध्य संतुलन की आवश्यकता है ताकि संसाधनों की उपलब्धता बनी रहेगी।
4. ऊर्जा के गैर-पारम्परिक संसाधनों का अधिक उपयोग किया जाना चाहिए।
5. सीमित व समाप्य संसाधनों का उपयोग अतिआवश्यक व राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यों में ही किया जाना चाहिए।
6. एक बार उपयोग करने के बाद धातु आदि का पुनर्चक्रण करके पुन: उपयोग में लाना चाहिए।

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महत्वपूर्ण प्रश्न

प्राकृतिक संसाधन कितने प्रकार का होता है?

2

प्राकृतिक संसाधन का उदाहरण कौन सा है?

कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस इसके कुछ उदाहरण हैं। 

प्राकृतिक संसाधन का अर्थ क्या है?

प्राकृतिक संसाधन वे कच्चे माल और ऊर्जा के स्रोत हैं जिनका हम उपयोग करते हैं।

निष्कर्ष

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नमस्कार, मैं कुलदीप सिंह पठतु प्लेटफार्म पर शिक्षा जगत से संबंधित लेख लिखने का कार्य करता हूं। मैंने इतिहास विषय से स्नातकोत्तर किया है और वर्तमान में पीएचडी कर रहा हु। यहां इस प्लेटफार्म पर मैं आपको बहुत सी जरूरी जानकारी देने का प्रयास करूंगा जो की शिक्षा जगत से जुड़ी हो।

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