पर्यावरण प्रदूषण क्या है? प्रकार, कारण, प्रभाव, उपाय

नमस्कार हम भूगोल विषय के महत्वपूर्ण अध्याय में से एक पर्यावरण प्रदूषण के बारे में विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। इस अध्ययन के दौरान हम विभिन बिन्दुओ पर चर्चा करेंगे जैसे पर्यावरण प्रदूषण क्या है? पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार, पर्यावरण प्रदूषण के कारण, पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव, पर्यावरण प्रदूषण के उपाय इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे तथा जानेंगे की किस प्रकार आप पृथ्वी के विभिन्न पहलुओं को समझ पायेंगे। तो आइये शुरू करते है पृथ्वी की आंतरिक संरचना एवं इतिहास के बारे में अध्ययन।

पिछलें वर्षों में मानव की जनसंख्या में भारी वृद्धि होने के कारण जल, बिजली, अन्न, वाहन और अन्य वस्तुओं की माँग में वृद्धि हुई हैं। जिससे प्राकृतिक संसाधनों पर काफी दबाव पड़ा हैं और जल, भूमि तथा वायु प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण की चुनौतियाँ किसी एक संगठन, एक समुदाय या एक देश में नहीं बल्कि पूर विश्व में वितरित हैं।

वर्तमान में इंजीनियरिंग के विकास से संसाधनों में कमी आई है और पर्यावरण का विनाश भी हो रहा है। इंजीनियरिंग और विनिर्माण उद्योग में उपयोग की जाने वाली सामग्रियों की मांग में वृद्धि हुई हैं। धातु, प्लास्टिक, तेल रबर आदि सामग्रियों का उपयोग कार उत्पादन, शिपिंग उद्योग, प्लास्टिक उद्योग, कोयला खनन, भारी मशीनें बनाने आदि में किया जाता हैं।

पर्यावरण प्रदूषण क्या है?

पर्यावरण में दूषक पदार्थों के प्रवेश के कारण प्राकृतिक संतुलन में होने वाला परिवर्तन अथवा भूमि, जल तथा वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक अभिलक्षणों में होने वाला अवांछनीय परिवर्तन प्रदूषण कहलाता है। ये अवांछनीय परिवर्तन उत्पन्न करने वाले कारकों को प्रदूषक कहते हैं। पर्यावरण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित है:-

पर्यावरण प्रदूषण के प्रकार

1. वायु–प्रदूषण:- 

मनुष्य, जीव, जन्तु, पादप सभी श्वसन के लिए वायु पर निर्भर रहते हैं। मनुष्य प्रतिदिन 22000 बार सांस लेता है, इससे वह प्रतिदिन 35 गैलन वायु ग्रहण करता है। वायु विभिन्न गैसों का मिश्रण है जिसमें सर्वाधिक मात्रा में नाइट्रोजन (78%) होती है तथा ऑक्सीजन (21%), कार्बन–डाई–ऑक्साइड (0.03%) व शेष 0.097% में हीलियम, हाइड्रोजन, ऑर्गन, निऑन, क्रिप्टान, जेनोन, ओजोन तथा जल वाष्प होती है। वायु प्रदूषक वायु को दूषित कर श्वसनरोधी समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। ये फसल की वृद्धि एवं उत्पाद भी कम कर देते है और इनके कारण पौधे परिपक्व होने से पहले ही मर जाते है।    

● वायु को प्रदूषित करने में प्राकृतिक तथा मानवीय कारण दोनों उत्तरदायी है। प्राकृतिक कारणों में आँधी, तुफान के समय उड़ती धूल, वनों में लगी आग के कारण उत्पन्न धुआँ, दलदल से निकलने वाली मीथेन गैस, फूलों के परागकण से निर्मुक्त कार्बन–डाइ–ऑक्साइड आदि प्रमुख है। मानवीय कारणों में घरेलू कार्यों, वाहनों तथा विद्युत ऊर्जा द्वारा दहन, कृषि कार्यो, औद्योगिक निर्माणों, आण्विक ऊर्जा संबंधी परियाजनाओं द्वारा प्रदूषण प्रमुख है।

● केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार 2.5 माइक्रोमीटर या कम व्यास के आकार के कण मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक हानिकारक है। श्वसन के समय ये कण फेफड़ों के भीतर चले जाते हैं और इनसे श्वसन संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है।

m वायु प्रदूषण का नियंत्रण–

● ताप विद्युत संयंत्रों के धूम्र स्तंभ, कणिकीय धूम्र और अन्य उद्योगों से निकलने वाली हानिकारक गैसों को वायुमंडल में छोड़ने से पहले पृथक या निस्यांदित कर बाहर निकाल देना चाहिए। स्वचालित वाहनों में सीसा रहित पेट्रोल या डीजल का प्रयोग करने से उत्सर्जित प्रदूषकों की मात्रा कम की जा सकती हैं। सभी वाहनों में डीजल के स्थान पर संपीड़ित प्राकृतिक गैस (CNG) का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि सीएनजी जलने के बाद बहुत कम मात्रा में बचती है। कल–कारखानों की चिमनियों की ऊँचाई अधिक होनी चाहिए। कारखानों की चिमनियों में बैग फिल्टर का उपयोग किया जाना चाहिए, जिससे इनसे निकलने वाले धूएँ में उपस्थित कालिख व कणकीय पदार्थ चिमनी के नीचे बैठ जाए तथा बैग फिल्टर से होकर बाहर निकल जाए। रेल यातायात में कोयले अथवा डीजल के इंजनों के स्थान पर बिजली के इंजनों का उपयोग होना चाहिए। पुराने वाहन के संचालन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए क्योंकि उनसे वायु प्रदूषण ज्यादा होता है। यूरो–1 तथा यूरो–2 मानकों का पालन कराया जाना चाहिए। ओजोन परत को क्षति पहुँचाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के उत्पादन एवं उपयोग पर कटौती की जानी चाहिए।

2. जल–प्रदूषण:-

पानी में हानिकारक पदार्थों के मिलने से जल प्रदूषित हो जाता है। इसे ही जल प्रदूषण कहते हैं। हानिकारक पदार्थों जैसे– सूक्ष्म जीव, रसायन, औद्योगिक, घरेलू या व्यावसायिक स्थानों से उत्पन्न दूषित जल आदि के मिलने से जल के भौतिक, रासायनिक व जैविक गुणधर्म प्रभावित होते हैं।

घरेलू वाहित मल और औद्योगिक बहि:स्त्राव:- शहरों में जब हम घरों में जल का उपयोग पीने के पानी के अलावा करते है तथा इस जल में सभी चीजों का मिलाकर नालियों में बहा देते है, तब यह जल नलियों द्वारा होता हुआ समीपस्थ नदी–नालों में मिल जाता है। प्रदूषित जल से ठोस पदार्थों को निकालना अपेक्षाकृत आसान है, लेकिन विलीन लवण जैसे– नाइट्राइट, फॉस्फेट आदि को निकालना कठिन है। घरेलू मल में मुख्य रूप से जैव निम्नीकरण कार्बनिक पदार्थ होते है, जिनका अपघटन आसानी से होता है।
● जलाशयों में काफी मात्रा में पोषकों की उपस्थिति के कारण प्लवकीय (मुक्त –प्लावी) शैवालों में बहुत वृद्धि होती है इसे शैवाल प्रस्फुटन (अल्गल ब्लूम) कहते है। शैवाल प्रस्फुटन के कारण जल की गुणवत्ता कम हो जाती है और मछलियाँ मर जाती है।
● जल हायसिंथ (आइकोर्निया केसिपीज) पादप है जो विश्व के सबसे अधिक समस्या उत्पन्न करने वाले जलीय खरपतवार (वीड) है तथा इन्हें बंगाल का आतंक भी कहा जाता हैं। ये पादप सुपोषी जलाशयों में काफी वृद्धि करते है।
● अस्पतालों के वाहित मल में अधिक मात्रा में रोगजनक सूक्ष्मजीव होते है जिनको जल में विसर्जित करने से पेचिश (अतिशार), टाइफाइड, पीलिया, हैजा (कोलेरा) आदि रोग हो सकते है।
● उद्योगों जैसे– पेट्रोलियम, कागज उत्पादन, धातु निष्कर्षण व प्रसंस्करण, रासायनिक–उत्पादन आदि के अपशिष्ट जल में प्राय: विषैले पदार्थ, भारी धातु व कई प्रकार के कार्बनिक यौगिक होते है जो बहुत हानिकारक होते है।

m जल–प्रदूषण का नियत्रंण– 

जल प्रदूषण का मुख्य स्त्रोत औद्योगिक निस्त्राव एवं घरेलू स्थानों से निस्सारित दूषित जल है। जल प्रदूषण से बचने का सबसे महत्वपूर्ण उपाय यह हैं कि स्वच्छ जलस्त्रोतों में प्रदूषित जल को मिलने से रोकना चाहिए। नदियों, तालाबों पर शौच आदि क्रियाकलाप, घरेलू कचरा, मूर्तियाँ या पूजन सामग्री का विसर्जन आदि पर रोक लगानी चाहिए। उद्योगों द्वारा उत्पन्न दूषित जल का समुचित उपचार कर इसके संपूर्ण पुनचक्रण हेतु प्रक्रिया विकसित करनी चाहिए। घरेलू दूषित जल को उपचारित कर औद्योगिक उपयोग, वृक्षारोपण, सड़कों, उद्योगों में जल छिड़काव आदि में उपयोग किया जा सकता है।

3. ठोस अपशिष्ट– 

वे सभी चीजें जैसे– कागज, खाद्य अपशिष्ट, काँच, धातु, रबड़, चमड़ा, वस्त्र आदि जो कूड़े–कचरे में फेंक दी जाती है, ठोस अपशिष्ट पदार्थ कहलाती है। ठोस अपशिष्टों को जलानें से इनके आयतन में कमी आ जाती हैं। लेकिन यह सामान्यत: पूरी तरह नहीं जलते है। खुले स्थानों में इन अवशिष्टों को फेकनें से इनका ढेर लग जाता है तथा ये स्थान चूहों तथा मक्खियों के लिए प्रजनन स्थल बन जाते हैं।
ऐसे कम्प्युटर और इलेक्ट्रोनिक सामान जिनकी मरम्मत नहीं की जा सकती, इलेक्ट्रोनिक अपशिष्ट (ई–वेस्ट्स) कहलाते हैं। ई–वेस्ट्स भी ठोस अपशिष्ट का ही रूप है। ई–वेस्ट्स को गाड़ दिया जाता है या जला दिया जाता है। विकसित देशों में ई–वेस्ट्स के पुनश्चक्रण की सुविधा उपलब्ध है। लेकिन विकाशील देशों में यह कार्य प्राय: हाथों से किया जाता है।
● ठोस अपशिष्ट पदार्थों को छांटकर अलग करना चाहिए। जिसमें जैव निम्नीकरण योग्य (बायोडिग्रेडेबल) पदार्थों को जमीन में गहरे गड्‌ढे में रखा जा सकता है और प्राकृतिक रूप से अपघटन के लिए छोड़ दिया जाता है। अजैव निम्नीकरण योग्य पदार्थों की पुनश्चक्रण की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्लास्टिक का उपयोग कम करके पारिस्थितिकी हितैषी वस्तुओं का उपयोग किया जाना चाहिए।

4. कृषि–रसायन– 

हरित क्रांति के बाद से फसल उत्पादन में वृद्धि करने के लिए अजैव (अकार्बनिक) उर्वरक और पीड़कनाशी का प्रयोग बढ़ गया है। वर्तमान समय में पीड़कनाशी, कवकनाशी आदि का प्रयोग काफी होने लगा है। रासायनिक उर्वरकों के अधिक उपयोग से मृदा में रहने वाले कृषि उपयोगी सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं कृत्रिम उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाए जाने से पारितंत्र में समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है।

जैव–कृषि– वह विधि जिसमें भूमि की उर्वरा को बचाए रखने के लिए संश्लेषित उर्वरकों व संश्लेषित कीटनाशकों का प्रयोग न्यूनतम कर फसल चक्र, हरी खाद, कंपोस्ट आदि का प्रयोग किया जाता है। जैव खेती, चक्रीय तथा शून्य अपशिष्ट वाली है। इस खेती में एक प्रक्रिया से प्राप्त अपशिष्ट अन्य प्रक्रिया के लिए पोषक तत्व के रूप में काम आते है। इससे संसाधन का अधिक उपयोग संभव होता है तथा उत्पादन की क्षमता भी बढ़ जाती है।

5. रेडियो सक्रिय अपशिष्ट –

 वे तत्व जो स्वत: ही अन्य तत्वों में विखंडित होते है तथा उनसे विशष्ट कण व तरंगे निकलती रहती है। ऐसे पदार्थों को रेडियाधर्मी पदार्थ कहते है। ये विकिरण अल्फा, बीटा तथा गामा किरणों के रूप में होते है। न्यूक्लीय अपशिष्ट से निकलने वाली किरणें जीव–जन्तुओं, मानव आदि के लिए बेहद नुकसानदेह होती है। इन अपशिष्टों की ज्यादा मात्रा जानलेवा होती हैं तथा कम मात्रा कई तरह के विकार उत्पन्न करती है। इन पदार्थों से आनुवंशिक उत्परिवर्तन, मिट्‌टी का बांझपन, विभिन्न बीमारयाँ आदि की समरस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण:-
● रेडियोधर्मी पदार्थों से संबंधित कल कारखानों में यदि इनके अपशिष्ट को सुरक्षित तरीके से न निकाला जाए तो ये कण हवा में मिलकर वायु को प्रदूषित कर देते है।
● मनुष्यों द्वारा खनन प्रक्रिया से निकाले गये रेडियो एक्टिव पदार्थ से तथा उन पदार्थों को शुद्ध करने की प्रक्रिया के दौरान भी रेडियोधर्मी प्रदूषण होता है।
● परमाणु परीक्षण के दौरान रेडियाधर्मी विकिरण अधिक मात्रा में निकलती है, जिससे आस–पास का वातावरण प्रदूषित हो जाता है।
● रेडियोधर्मी अपशिष्ट की सागरीय क्षेत्रों में डंपिंग करने से जल प्रदूषित हो जाता है।
● परमाणु ऊर्जा उत्पादन संयंत्रों में दुर्घटना होने से भी रेडियोधर्मी विकिरण वातावरण को प्रदूषित कर देती है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण रोकने के उपाय:-
● परमाणु ऊर्जा उत्पादक यंत्रों की सुरक्षा करनी चाहिए।
● परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
● संगठनों के माध्यम से जनजागरण अभियान चलाना चाहिए।
● वृक्षारोपण करके रेडियोधर्मी प्रभाव को कम किया जा सकता है।
● रेडियोधर्मी पदार्थों की डंपिंग सीमा में करनी चाहिए तथा वातवरण में विकिरण की मात्रा कम करनी चाहिए।

6. ग्रीन हाउस प्रभाव:-

● ग्रीन हाउस प्रभाव के द्वारा पृथ्वी की सतह गर्म हो रही है। सूर्य से आने वाली किरणों का कुछ भाग पृथ्वी के वायुमण्डल से परावर्तित होकर बाहर चला जाता है तथा कुछ भाग पृथ्वी पर समुद्र तथा सतह पर मौजूद तत्वों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। इस अवशोषित ऊर्जा का अतिरिक्त भाग ऊष्मा में परिवर्तित हो जाता है तथा पृथ्वी के निम्न वातवरण को गर्म कर देता है। इससे पृथ्वी का तापमान बढ़ने लगता है, जिसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं। इसके अतिरिक्त क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन डाई ऑक्साइड आदि गैसें भी ग्रीन हाउस प्रभाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

● पिछले दशक से मानव द्वारा अनियंत्रित औद्यिगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि, अनियोजित शहरीकरण आदि कृत्यों के कारण वातावरण प्रदूषित हो रहा हैं। इन कृत्यों के कारण वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा निरंतर बढ़ रही है, फलस्वरूप ग्रीन हाउस प्रभाव से पृथ्वी के तापमान में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। तापमान वृद्धि के कारण कई दुष्प्रभाव देखने का मिल रहे है, जैसे– ग्लेशियर का तेजी से पिघलना, समुद्र के जलस्तर का बढ़ना, बाढ़ आना, समुद्र तटीय शहरों का डूबना, आदि।

उपाय:-
● वनीकरण को बढ़ावा देना चाहिए।
● हैलोकार्बन के उत्पादन को कम करना चाहिए।
● ईंधन वाले वाहनों का प्रयोग कम करना चाहिए।
● समुद्रीय शैवाल बढ़ाना चाहिए ताकि प्रकाश संश्लेषण से कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा कम हो सकें।
● उद्योगों से निकलने वाले दूषित पदार्थों का निष्कासन कम करना चाहिए।
● ऊर्जा के नए स्त्रोतों का प्रयोग करना चाहिए, जैसे– सौर ऊर्जा, जल विद्युत ऊर्जा आदि।

7. समताप मंडल में ओजोन अवक्षय–

● ओजोन गैस ऑक्सीजन का ही एक प्रकार है। तीन ऑक्सीजन परमाणुओं के जुड़ने से ओजोन (O3) का एक अणु निर्मित होता है।

● ओजोन गैस ऊपरी वायुमंडल (समताप मंडल) में अत्यंत पतली एवं पारदर्शी परत का निर्माण करती है। ओजोन गैस की कुछ मात्रा निचले वायु मंडल (क्षोभ मंडल) में भी पाई जाती है। वायु मंडल में मौजूद समस्त ओजोन का कुल 90% भाग समतापमंडल में पाया जाता है। समताप मंडल में ओजोन गैस पृथ्वी को सूर्य से आने वाली हानिकारक पराबैंगनी विकिरण से बचाती है तथा क्षोभमंडल में ओजोन हानिकारक संदूषक का कार्य करती है व कभी–कभी प्रकाश रासायनिक धूम भी बनाती है। क्षोभमंडल में यह गैस बहुत कम मात्रा में भी मानव, पेड़–पौधों को नुकसान पहुँचा सकती है।

● मानवजनित औद्योगिक प्रदूषण के कारण क्षोभमंडल में ओजोन गैस की अधिकता हो रही है तथा समतापमंडल में जहाँ ओजोन गैस की आवश्यकता है, वहाँ इसकी मात्रा घटती जा रही है।

● सूर्य से आने वाली पराबैंगनी विकिरणों को ओजोन परत द्वारा समतापमंडल में ही रोक लिया जाता है। पराबैंगनी विकिरण जीव–जन्तुओं, वनस्पतियों तथा मनुष्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। वायुमंडल में उपस्थित गैसों (एरोसॉल, क्लोरोफ्लोरो कार्बन आदि) के कारण ओजोन का विघटन होने से ओजोन परत कमजोर पड़ गई जिससे ओजोनमंडल में छिद्र का निर्माण हुआ है। इस छिद्र के कारण पराबैंगनी विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच जाती है जिसके काफी दुष्प्रभाव देखने को मिल रहे है।

पराबैंगनी किरणों का दुष्प्रभाव:-
● पराबैंगनी किरणों से त्वचा का कैंसर होने की संभावना रहती है।
● इससे आँखों में मोतियाबिन्द भी हो जाता है।
● इन किरणों के गर्भवती महिला के संपर्क में आने से गर्भस्थ शिशु को क्षति हो सकती है।
● ये किरणें मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देती हैं।
● पेड़–पौधों के प्रकाश संश्लेषण क्रिया को प्रभावित करती है।
● समुद्री जीवों को भी क्षति पहुँचाती है।

8. अम्ल वर्षा:-

● वायु प्रदूषण के कारक NO2, SO2, NO, CO आदि वातावरण में उपस्थित जल की बूंदों के साथ क्रिया करके पृथ्वी पर अम्ल के रूप में वर्षा करती है जिसे अम्ल वर्षा कहते हैं। अम्लीय वर्षा से न केवल भूमि प्रदूषित होती है बल्कि सांस्कृतिक धरोहरों को भी कैंसर होता है, जिससे इनकी दीवारों का रंग परिवर्तित हो जाता है। अम्लीय वर्षा से जलीय जन्तुओं को हानि, झील इको तंत्र पर प्रभाव, स्थलीय इको तंत्र पर प्रभाव, जीवाणु तथा सूक्ष्म जीवों पर प्रभाव पड़ता हैं।

9. मृदा अपरदन:-

● पानी, हवा तथा जीव–जन्तुओं या मानवीय कारणों से मृदा का कटाव या बहाव होता हैं, जिसे मृदा अपरदन कहते है। मृदा अपरदन के प्रमुख कारणों में वृक्ष्रों का अविवेकपूर्ण कटाव, त्रुटिपूर्ण फसल चक्र अपनाना, क्षेत्र ढलान में कृषि करना, सिंचाई की त्रुटिपूर्ण विधियाँ अपनाना, मृदा अपरदन को त्वरित करने वाली फसलों को उगाना आदि है। मृदा अपरदन के कारण मृदा की उर्वरता कम हो जाती है जिससे बंजर भूमि की समस्या उत्पन्न होती है। मृदा अपरदन के कारण निरंतर जल स्तर में कमी, निरंतर सूखा, नदी व नहरों के मार्ग का अवरूद्ध होना, बोई गई फसलों में बीजों का अंकुरित न होना, बाढ़ का प्रकोप आदि होता है।

उपाय:-
मृदा अपरदन को रोकने के लिए वृक्षारोपण, पशु–चारण पर नियंत्रण, नदियों पर बाँध बनाना, कृषि प्रणाली में परिवर्तन आवश्यक है।
कृषि प्रणाली में परिवर्तन से मृदा–अपरदन काफी हद तक रोका जा सकता है। इसके उपाय निम्नलिखित है:-
● फसल–चक्र प्रणाली का प्रयोग करना।
● कम समय में उगने वाली फसल बोना।
● स्थानान्तरित कृषि पर नियंत्रण।
● ढालों पर समोच्चरेखीय जुताई करना।
● पर्वतीय प्रदेशों में सीढ़ीनुमा खेत बनाना।
● भूमि को पवन की दिशा में समकोण पर जोतना।

10. मरुस्थलीकरण:-

● जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों से शुष्क, अर्द्धशुष्क व शुष्क उप आर्द्र क्षेत्रों की भूमि मरुस्थल का रूप ले लेती है, जिससे विशाल मरुस्थल का निर्माण होता है। इससे भूमि की उत्पादन क्षमता में कमी आती है। मरुस्थलीकरण के कारण प्राकृतिक वनस्पतियों, कृषि उत्पादकता, पशुधन आदि का क्षरण होता है। विश्व में हर वर्ष 12 मिलियन हैक्टर भूमि मरुस्थलीकरण तथा सूखे के कारण बंजर हो जाती है। विश्व के कुल क्षेत्रफल का पाँचवा भाग मरुस्थल ही है।

● मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारणों में पानी से कटाव, हवा से मिट्‌टी का कटाव, औद्योगिक कचरा, निर्वनीकरण, खनन, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन आदि है।

नियंत्रण के उपाय:-
● वृक्षारोपण को बढ़ाना।
● मरुस्थलीय क्षेत्रों के अनुकूल पौधें लगाना।
● मिट्‌टी के अपरदन को रोकना।
● अवैध खनन पर नियंत्रण।
● कृषि कार्यों में सूक्ष्म सिंचाई को बढ़ावा देना।
● बेहतर भूमि उपयोग नियोजन व प्रबंधन
● जनसंख्या नियंत्रण
● मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए रक्षक पट्टी
● मेघ बीजन।

11. वनोन्मूलन:-

● मानव द्वारा वन प्रदेशों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नष्ट करना वनोन्मूलन कहलाता हैं। वनों को खेती के लिये, चारागाहों के लिये, शहरीकरण के लिए, जलाने की लकड़ी के लिए, इमारती लकड़ी के लिए तथा कागज बनाने के लिए प्रयुक्त लकड़ी के लिए काटा जा रहा हैं। झूम कृषि (स्थानान्तरित कृषि) के कारण भी वनोन्मूलन हो रहा है।

● वनोन्मूलन के कारण वातावरण में कार्बन डाइ ऑक्साइड की सान्द्रता बढ़ रही है, वैश्विक उष्णता में वृद्धि हो रही है, जल–चक्र अनियमित हो रहा है, मृदा अपरदन तथा मरुस्थलीकरण की समस्या हो रही है, परितंत्र असन्तुलित हो रहा है, जैव विविधता में कमी आ रही है।

● वनोन्मूलन को नियंत्रण में लाने के लिए पुनर्वनीकरण करना अति आवश्यक है अर्थात् तेजी से वृक्षारोपण करना चाहिए। वनों की कटाई पर रोक लगानी चाहिए। जन जागरण को वनों की महत्वता के लिए प्रेरित करना चाहिए।

12. तेल रिसाव:- 

तेल रिसाव भी प्रदूषण का एक अन्य रूप है। जिसमें तरल पेट्रोलियम का समुद्र में रिसाव होता है जिससे समुद्री पारिस्थितकी तंत्र प्रभावित होता है। तेल रिसाव की घटना भूमि, वायु तथा पानी को भी प्रदूषित कर सकती है।
● तेल रिसाव के कारण समुद्री भोजन पर निर्भर रहने वाली स्वदेशी आबादी के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इससे समुद्र में रहने वाले जीवों पर हानिकारक प्रभाव होता है क्योंकि यह पर्याप्त सूर्य का प्रकाश तथा जल में घुलित ऑक्सीजन के स्तर को प्रभावित करता है। खारे पानी के दलदल और मैंग्रोव पर भी तेल रिसाव का प्रभाव पड़ता है। इनके अतिरिक्त पर्यटन, मछली व्यवसाय पर भी प्रभाव पड़ता है।

नियंत्रण के उपाय:
● बायोरेमेडिएशन से समुद्र में फैले तेल को साफ किया जा सकता है।
● स्कीमर की सहायता से
● विभिन्न सोरबेंट्स (पुआल, ज्वालामुखी राख आदि) का उपयोग करके। 
● डिस्पेरिंग एजेंट का उपयोग करके।
● कंटेनमेंट बूम्स की सहायता से।

13. जलीय विभंजन (हाइड्रोलिक फ्रेक्चरिंग): 

जलीय विभंजन  तकनीक से चट्‌टानों को तरल या द्रव्य द्वारा तोड़ा जाता है। इस  तकनीक का उपयोग खदानों का खनन करने में भी किया जाता है।  इस प्रकार बहुत सारे रसायन चारों ओर फैल जाते है जिससे भूमि  तथा जल प्रदूषण होता है। इस प्रक्रिया में मीथेन गैस व जहरीले  रसायन बाहर निकलकर पास के भूजल को दूषित कर देते है। इससे  भूमिगत जल भी काफी प्रदूषित होता है।

पर्यावरण से संबंधित महत्वपूर्ण समझौते व सम्मेलन:-

1. स्टॉकहोम सम्मेलन:- यह सम्मेलन वर्ष 1972 में स्टॉकहोम, स्वीडन में आयोजित किया गया था। यह सम्मेलन संयुक्त राष्ट्रसंघ का पहला पर्यावरण सम्मेलन था। यह सम्मेलन पर्यावरणीय क्षरण, मौसम परिवर्तन व आपदाओं पर नियंत्रण हेतु प्रथम वैश्विक प्रयास था। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप मनाने का फैसला लिया एवं UNEP का गठन का निर्णय लिया गया। एवं प्रोजेक्ट टाइगर कार्यक्रम की शुरुआत की गई।
उद्देश्य – विकासशील उद्देश्यों देशों को पर्यावरण सरंक्षण के लिए तकनीकी एवं पूँजी संबंध सलाह देना।

2. हेलसिंकी सम्मेलन:- यह सम्मेलन वर्ष 1974 में हेलसिंकी (फिनलैंड) में आयोजित किया गया। इसका मुख्य विषय समुद्री पर्यावरण की रक्षा करना था परन्तु इस विषय को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया जिससे यह सम्मेलन असफल रहा।

3. लंदन सम्मेलन:- यह सम्मेलन वर्ष 1975 में लंदन (ब्रिटेन) में आयोजित किया गया। इसका मुख्य विषय समुद्री कचरे का निस्तारण था। इस सम्मेलन में बाह्य स्त्रोतों से आने वाले कचरे को समुद्र से बाहर ही रोकने पर चर्चा की गई।

4. वियना सम्मेलन:- यह सम्मेलन वर्ष 1985 में वियना (ऑस्ट्रिया)  में हुआ तथा वर्ष 1988 में लागू किया गया। यह ओजोन परत के  संरक्षण के लिए एक बहुपक्षीय पर्यावरण समझौता है। इस सम्मेलन  का मुख्य उद्देश्य ओजोन परत पर मानवीय गतिविधियों के प्रभावों  के बारे में जानकारी देना था।

5. मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल:- यह ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले विभिन्न पदार्थों के उत्पादन तथा उपयोग पर नियंत्रण के लिए 16 सितम्बर 1987 में हस्ताक्षरित किया गया, एक ऐतिहासिक अन्तर्राष्ट्रीय समझौता है। इस समझौते को आज विश्व का सबसे सफल समझौता माना जाता है। इसी कारण 16 सितम्बर को ओजोन दिवस के रूप में मनाया जाता है।

6. टोरंटो सम्मेलन:- यह 14वां जी–7 शिखर सम्मेलन था जो टोरंटो (कनाडा) में वर्ष 1988 में आयोजित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रीन हाउस गैसों के अन्तर्गत आने वाली गैसों के बारे में जानकारी आदान–प्रदान करना था।

7. पृथ्वी सम्मेलन:- यह सम्मेलन 3–14 जून 1992 को रियो डी जेनेरिया, ब्राजील में आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन को पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCED), रियो शिखर सम्मेलन, रियो सम्मेलन, पृथ्वी शिखर सम्मेलन के रूप में भी जाना जाता है। यह वैश्विक सम्मेलन पहले मानव पर्यावरण सम्मेलन, 1972 की 20वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित किया गया था। पृथ्वी सम्मलेन में विश्व को प्रदूषण से बचाने के लिए वित्तीय प्रबन्ध, जैविक विविधता, सतत विकास, वनों का प्रबंधन आदि विषय विचारणीय थे। इस सम्मेलन में एजेंडा–21 तथा रियो घोषणा को प्रस्तुत किया गया।

8. एजेंडा–21:- यह वर्ष 1992 में रियो सम्मेलन में अपनाया गया। यह 21वीं सदी मे स्थिरता के लिए बनाया गया। इसमें पारिस्थितिकी व आर्थिक विकास में सन्तुलन बनाये रखने के लिए निम्न विषयों पर जोर दिया गया–
● स्वास्थ्य
● वित्तीय संसाधन
● प्रौद्योगिकीय उपकरण
● गरीबी
● मानवीय व्यवस्थापन
एजेंडा–21 की घोषाणाओं की पालना कराने हेतु वर्ष 1993 में सतत विकास आयोग का गठन किया गया।

9. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) – 1992 में रियो सम्मेलन के समय जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन पर लगभग 150 देशों ने हस्ताक्षर किये। यह पर्यावरण की रक्षा करने के लिए एक व्यापक संधि है। UNFCC का सचिवालय जेनेवा में स्थित है।

10. जैव विविधता पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन (CBD) – इसकी स्थापना 1992 में रियो सम्मेलन के समय हुई थी। इसके प्रमुख लक्ष्यों में जैव विविधता का संरक्षण, जैव विविधता के घटकों का सतत उपयोग तथा अनुवांशिक संसाधनों से उत्पन्न होने वाले लाभ का समान बंटवारा करना है। प्रत्येक 2 वर्षों में सभी सदस्य देश COP सम्मेलन में मिलते है।

11. संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (UNCCD) – इसे 1992 में रियो सम्मेलन में अपनाया गया। इसकी स्थापना 1994 में की गई। यह पर्यावरण व विकास के संदर्भ में एक बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है।

12. न्यूयॉर्क सम्मेलन:- यह सम्मेलन वर्ष 1997 में न्यूयॉक (अमेरिका) में आयोजित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एजेंडा – 21 को प्रभावी बनाये रखना था।

13. क्योटो प्रोटोकॉल – इसे 1997 में अपनाया गया था। ग्लोबल वार्मिंग द्वारा हो रहे जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में की गई। इस सम्मेलन में कार्बन डाइ ऑक्साइड में कटौती पर सहमति बनी।
इस सम्मलेन में कार्बनडाइऑक्साइड गैस में 5.2 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य रखा गया एवं यह एक बाध्यकारी जो वर्ष 2021 में समाप्त हो गया।
नोट – कार्बनटैक्स जारी करने वाला न्यूजीलैंड पहला देश है। (मई 2005) दूसरा ऑस्ट्रेलिया।

14. जोहान्सबर्ग सम्मेलन (रियो + 10) – यह 2002 में जोहान्सबर्ग (दक्षिणी अफ्रीका) में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का मुख्य विषय सतत विकास था। इस सम्मेलन द्वारा विश्व एकजुटता कोष की स्थापना की गई।
लक्ष्य
गैर परम्परागत ऊर्जा के व्यापक प्रयोग का लक्ष्य रखा, साथ ही जैव-विविधता पर बल दिया गया।

15. कानकुन सम्मेलन – यह 2010 में मेक्सिको में आयोजित किया गया। इसे UNFCC COP – 16 भी कहते है। इसका मुख्य उद्देश्य उत्सर्जन की मात्रा तय करना, जलवायु परिवर्तन पर एक नवीन संधि के लिए सर्वसम्मति कायम करना था।

16. कार्टाजेना प्रोटोकॉल – जैव विविधता पर वर्ष 2000 में बुलाए सम्मेलन में इसे अपनाया गया तथा वर्ष 2003 से यह लागू हुआ। इसके तहत आधुनिक जैव प्रौद्योगिकीयों से उत्पन्न सजीव संवर्द्धित जीवों (LMOs) के परिवहन तथा उपयोग को सुनिश्चित किया गया।

17. नागोया प्रोटोकॉल – जैव विविधता पर वर्ष 2010 में जापान के नागोया में इस प्रोटोकॉल को अपनाया गया। यह 2014 से प्रभावी हुआ। इसमें जैव विविधता पर दबाव कम करने पर जोर दिया गया।

18. रामसर संधि – वर्ष 1971 में ईरान के रामसर शहर में यूनेस्को के नेतृत्व में यह संधि अपनाई गई। यह विश्व की आर्द्रभूमियों के स्थायी उपयोग तथा संरक्षण के लिए अस्तित्व में लायी गई। रामसर कन्वेंशन पहली वैश्विक पर्यावरण संधि है जो विशेष पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण करती है।

आर्द्रभूमि – यह क्षेत्र जल तथा स्थल के मध्य का क्षेत्र होता है। यह जैव-विविधता से समृद्ध क्षेत्र होते है। इन क्षेत्रों में वर्ष भर आंशिक या पूर्णत: जल का भराव रहता हैं।

इनमें दलदल, नदियाँ, डेल्टा, झीले, मैंग्रोव, बाढ़ के मैदान तथा जंगल, चावल के खेत, प्रवाल भित्तियों के अतिरिक्त मानव निर्मित आर्द्रभूमि क्षेत्र जैसे अपशिष्ट-जल तालाब व जलाशय आदि शामिल होते हैं।

महत्व –
• बाढ़ की घटनाओं में कमी लाना।
• तटों की रक्षा करना।
• जल को प्रदूषण मुक्त बनाना।
• पर्यटन, परिवहन व लोगों की सांस्कृतिक व अध्यात्मिक कल्याण में भूमिका।
• कई आर्द्रभूमि प्राकृतिक सुंदरता के क्षेत्र है।

खतरा –
• मानव गतिविधियों व ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्द्रभूमियाँ तेजी से खत्म हो रही हैं।
• वनस्पतियों व जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
• जल प्रदूषण बढ़ेगा।
आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिए 2 फरवरी, 1971 में ईरान में रामसर शहर में रामसर सम्मेलन हुआ। इसलिए प्रत्येक वर्ष 2 फरवरी को विश्व आर्द्रभूमि दिवस मनाया जाता है।

भारत में आर्द्रभूमि की स्थिति –
• भारत में लगभग 4.6% भूमि आर्द्रभूमि के रूप में पाई जाती है। भारत में नवम्बर 2021 तक 47 रामसर स्थल है (सुर सरावेर या कीथम झील और नवें रामसर स्थल के रूप में हैदरपुर वेटलैंड का चयन किया गया है।) जिन्हें यूनेस्को ने अंतर्राष्ट्रीय महत्व (रामसर स्थल) घोषित किया है।
भारत सरकार ने राष्ट्रीय वेटलैंड संरक्षण कार्यक्रम वर्ष 1986 में शुरू किया था।
आर्द्रभूमियों का विनियमन आर्द्रभूमि (संरक्षण और प्रबंधन) नियम, 2017 के द्वारा किया जाता है।
• राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) ने मैंग्रोव वनों के दोहन की जाँच के लिये एक समिति बनाई। इस समिति ने बताया कि पश्चिम बंगाल सरकार बंगलर आवास नामक योजना के लिए मैंग्रोव वनों की कटाई कर रही है। इसरो के अनुसार 2003 से 2019 के मध्य 3.71% मैंग्रोव वन का हृास हुआ है।

19. रासायनिक हथियार कन्वेंशन (CWC) – यह एक हथियार नियत्रंण संधि है जो 1997 में लागू हुई। इसमें इस सम्मेलन का मुख्य विषय रासायनिक हथियारों के विकास, उत्पादन, अधिग्रहण तथा संग्रहण को रेखांकित करना था।

भारत की पर्यावरण नीतियाँ – भारत के संविधान के अनुच्छेद 48ए तथा 51ए (जी) में पर्यावरण संबंधी दिशा-निर्देश दिए गए है। अनुच्छेद 48 ए में राज्य सरकारों को तथा अनुच्छेद 51ए (जी) में नागरिकों के पर्यावरण संबंधी कर्तव्यों के बारे में लिखा है। भारत सरकार ने पर्यावरण की गुणवत्ता बनाये रखने तथा प्रदूषण को कम करने के लिए अनेक नियम तथा कानून बनाये है। इनमें कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित है।

 जल प्रदूषण संबंधी कानून –
• नदी बोर्ड अधिनियम, 1956
• जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
• जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1977
• पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
• राष्ट्रीय जलनीति – 2002

 वायु प्रदूषण संबंधी कानून –
• फैक्ट्रीज अधिनिमय, 1948
• ज्वलनशील पदार्थ अधिनियम, 1952
• वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981

भूमि प्रदूषण संबंधी कानून –
• इण्डस्ट्रीज अधिनियम, 1951
• कीटनाशी अधिनियम, 1986
• शहरी भूमि सीमा कानून, 1976

वन तथा वन्यजीव संबंधी कानून –
• वन संरक्षण अधिनियम, 1960
• वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972
• वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980
• वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1995
• जैव-विविधता अधिनियम, 2002
• राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004
• वन अधिकार अधिनियम, 2006

पर्यावरण (सरंक्षण) अधिनियम, 1986 – संयुक्त राष्ट्र के प्रथम मानव पर्यावरण सम्मेलन (1972) के बाद ही भारत ने पर्यावरण के संरक्षण के लिए यह अधिनियम पारित किया। इसके उद्देश्य निम्नलिखित है –
(i) पर्यावरण का संरक्षण व सुधार
(ii) मानव, पादपों, जीवों को संकट से बचाना
(iii) स्टॉकहोम सम्मेलन के नियमों को कार्यान्वित करना
(iv) पर्यावरण के संरक्षण के लिए सामान्य व व्यापक विधि बनाना

वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 – भारतीय वन्य जीव बोर्ड का गठन 1956 में हुआ। इस बोर्ड के अन्तर्गत भारत में वन्य जीव पार्क तथा अभ्यारणों का निर्माण हुआ। इसके बाद ही 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 पारित किया गया। इस अधिनियम में वर्ष 1986 तथा 1991 में संशोधन किए गये। वर्ष 1972 में सिंह के संरक्षण के लिए, वर्ष 1973 में बाघ के संरक्षण के लिए, 1984 में मगरमच्छ के संरक्षण के लिए कई परियोजनाएँ चलाई।

इस अधिनियम के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित है –
• संकटग्रस्त पौधों को संरक्षण देना
• राष्ट्रीय वन्यजीव पार्क तथा अभ्यारणों में मूलभुत सुविधाएँ देना।
• संकटग्रस्त वन्यप्राणियों की सूची बनाना तथा उनके शिकार पर प्रतिबंध लगाना।
• लुप्त प्रजातियों को संरक्षण देना इत्यादि।

जैव-विविधता संरक्षण अधिनियम, 2002 – भारत में विभिन्न जैव-विविधताएँ पाई जाती है। जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, 1992 के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भारत सरकार ने जैव-विविधता संरक्षण अधिनियम, 2002 पारित किया। इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का संरक्षण करना, जीव-विज्ञान संसाधन के उपयोग का लाभ सभी में समान वितरित करना। इसमें राष्ट्रीय स्तर पर जैव –विविधता बनाने का प्रावधान, राज्य स्तर पर राज्य जैव विविधता बोर्ड स्थापित करना तथा स्थानीय स्तर पर जैव-विविधता प्रबंधन समिति की स्थापना करना भी है।

अन्य
COP -21 –
 कॉन्फ्रेस ऑफ द पार्टीज -21 ने 12 दिसम्बर 2015 संयुक्त राष्ट्रीय फ्रेम वर्क कनवेंशन के द्वारा जलवायु परिवर्तन को स्वीकार किया गया। जिसमें 192 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन का उद्देश्य पृथ्वी के बढ़ते तापमान को पूर्व औद्योगिक स्तर से 2ºC की वृद्धि से नीचे रखना है साथ ही यह भी प्रयास किया जाएगा कि तापमान में 1.5 C पर रोक लिया जाए जिससे कि जलवायु परिवर्तन के अन्य खतरों से निपटा जा सके।

कार्बन ट्रेडिंग – संयुक्त राष्ट्र एनवायरमेंट प्रोटेशन एजेन्सी ने 1970 में प्रस्तुत किया जिसमें कार्बन क्रेडिट की खरीद एवं बिक्री की जाती है कार्बन ट्रेडिंग कहलाती है।
यह देश के अंदर या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के रूप में हो सकती है।

कार्बन क्रेडिट – ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए मौद्रिक रूप में प्रोत्साहन देने का एक माध्यम है। यदि कोई कंपनी निर्धारित सीमा से कम कार्बन उत्सर्जन करती है तो उसे कार्बन क्रेडिट मिलता है। जिसे बेचकर वह धन कमा सकती है। जिसे अधिक उत्सर्जन करने वाली कंपनी लाइसेंस रद्द होने के भय से खरीदती है।

कार्बन फुट प्रिंट – ग्रीन हाउस गैसों के प्रति व्यक्ति या प्रति औद्योगिक इकाई उत्सर्जन की मात्रा को उस व्यक्ति या औद्योगिक इकाई को कार्बन फुट प्रिंट कहा जाता है। (मापन – ग्राम उत्सर्जन)।

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) – पर्यावरण संबंधी कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन व पर्यावरण के अधिकारों की सुरक्षा के लिए केन्द्र सरकार ने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal) को दिल्ली में 18 अक्टूबर 2010 को स्थापित किया गया।

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