वनोन्मूलन क्या है? अर्थ, कारण, परिणाम, उपाय Deforestation in Hindi

नमस्कार आज हम इस अध्याय में वनोन्मूलन (vanonmulan) के विषय में अध्ययन करेंगे तथा साथ ही जानेंगे वनोन्मूलन क्या है? वनोन्मूलन का अर्थ, वनोन्मूलन के कारण, परिणाम, वनोन्मूलन रोकने के उपाय Deforestation in Hindi इत्यादि। आइये शुरू करते है आज का अध्ययन।

वनोन्मूलन का अर्थ

सामान्य शब्दों का में वनोन्मूलन का अर्थ वनो का उनमूलन मतलब वनो का हास होना ही वनोन्मूलन है।

वनोन्मूलन क्या है?

बड़ी संख्या में पेड़ों की कटाई करना वनोन्मूलन है।

वर्तमान आर्थिक मानव प्राकृतिक वनस्पतियों के लिए पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं यथामृदा अपरदन में वृद्धि बाढ़ों की आवृति तथा विस्तार में वृद्धि वर्षा में कमी के कारण सूखे की घटनाओं में वृद्धि जंतुओं की कई जातियों का विलोपन आदि। पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण से प्रत्येक देश के समस्त भौगोलिक क्षेत्रफल के कम से कम एक तिहाई भाग पर घना वनावरण होना चाहिए परंतु इस पारिस्थितिकीय नियम का प्रत्येक देश में उल्लंघन किया गया है

वनोन्मूलन या वन विनाश के कारण (Causes of Deforestation)

वन विनाश के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं–

औद्योगिकीकरण

   आर्थिक विकास हेतु तेजी से औद्योगिकीकरण हो रहा है। उद्योगों को स्थापित करने हेतु वन काटकर जमीन उपलब्ध कराई गई है।

   इन उद्योगों में कच्चा माल एवं ईंधन हेतु प्रति वर्ष लाखों हैक्टेयर वन काटे जा रहे हैं। खनन के कारण भी जंगल काटे जाते हैं। इसी प्रकार पैकिंग उद्योग भी वनों को क्षति पहुँचाता है। 

झूम खेती

–   वनोन्मूलन का एक कारण झूम खेती भी रहा है। इसके कारण विश्व में उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों का तेजी से विनाश हो रहा है, झूम खेती में किसी क्षेत्र विशेष की समस्त वनस्पति जला दी जाती है। जो राख शेष बचती है।

    वह भूमि की उर्वरता में मिलकर उसकी उर्वरता को बढ़ा देती है, इस भूमि पर वर्ष में दोतीन फसलें बोई जा सकती है।

    जब इस भूमि की उर्वरता कम होने लगती है तो कृषक इस भूमि को छोड़कर नई भूमि पर इस प्रकार की फसल प्राप्त करते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में झूम खेती अधिक प्रचलित है।

अतिचारण

–   विकास देशों में दुधारू पशुओं की संख्या तो बहुत अधिक है परंतु उनकी उत्पादकता निहायत कम है, ये अनर्थिक पशु विरल तथा खुले वनों में भूमि पर उगने वाली झाड़ियों, घासों तथा शाकीय पौधों को चट कर जाते हैं, साथ ही ये अपनी खुरों से भूमि को रौंद देते हैं जिससे उगते पौधे नष्ट हो जाते हैं तथा नए बीजों का अंकुरण तथा छोटे पौधों का प्रस्फुटन नहीं हो पाता है।

वनों का चारागाहों में परिवर्तन

–   विश्व के सागरीय जलवायु वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों खासकर उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका तथा अफ्रीका में डेयरी फार्मिंग के विस्तार एवं विकास के लिए वनों को व्यापक स्तर पर पशुओं के लिए चारागाहों में बदला गया है।

उपजाऊ भूमि की कमी

–   वनों के अभाव में बाढ़ नियंत्रण नहीं हो पाता है जिससे फसल एवं जानमाल की बर्बादी होती है, साथ ही साथ देश की उपजाऊ मिट्टी समुद्र में चली जाती है। फलत: भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है और उपजाऊ भूमि की कमी हो जाती है।

वन भूमि का कृषि भूमि में परिवर्तन

–   मुख्य रूप में विकासशील देशों में मानव जनसंख्या में तेजी से हो रही वृद्धि के कारण यह आवश्यक हो गया है कि वनों के विस्तृत क्षेत्रों को साफ करके उस पर कृषि की जाए, ताकि बढ़ती जनसंख्या का पेट भर सके।

   उष्ण एवं उपोषण कटिबंधों में स्थित कई विकासशील देशों में जनसंख्या में अपार वृद्धि होने के कारण कृषिक्षेत्रों में विस्तार करने के लिए उनके वन क्षेत्रों के एक बड़े भाग का सफाया किया जा चुका है। भारत भी वन विनाश की इस दौड़ में पीछे नहीं है।

वनाग्नि

   प्राकृतिक कारणों से या मानव जनित कारणों से वनों में आग लगने से वनों का तीव्र गति तथा लघुतम समय में विनाश होता है। वानाग्नि के प्राकृतिक स्त्रोतों में वायुमंडलीय बिजली सर्वाधिक प्रमुख है।

निर्धनता

   वनोन्मूलन का एक कारण देश में निर्धनता की अधिकता भी है। भारतवर्ष जैसे विकासशील देशों में जनसंख्या का एक बड़ा भाग निर्धनता का जीवन व्यतीत कर रहा है। इनकी आजीविका का प्रमुख स्त्रोत वन से प्राप्त होने वाली लकड़ी एवं गौण उपजें हैं। अत: जनसंख्या के बढ़ने के साथ यदि गरीबी बढ़ती है तो वनोन्मूलन भी बढ़ता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिवेशन में श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था, “गरीबी सबसे अधिक प्रदूषण फैलाती है।“

बहु-उद्देशीय नदी-घाटी परियोजना

   इन योजनाओं के कार्यान्वयन के समय विस्तृत वनक्षेत्र का क्षय होता है क्योंकि बाँधों के पीछे निर्मित वृहद् जल भंडारों में जल के संग्रह होने पर वनों से आच्छादित विस्तृत भूभाग जलमग्न हो जाता है।

वनोन्मूलन के प्रतिकूल प्रभाव अथवा दुष्प्रभाव (Adverse Effects of Deforstation)

–     वनोन्मूलन के प्रतिकूल प्रभावों का अध्ययन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत कर सकते हैं-

पर्यावरण का दुष्प्रभाव

–   प्राकृतिक संतुलन में वनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: वन विनाश का पर्यावरण पर प्रत्यक्ष रूप में बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उपजाऊ भूमि का कटाव, बाढ़, सूखा, कम वर्षा, पर्यावरण प्रदूषण इत्यादि वन विनाश के भी परिणाम हैं।

पानी की कमी

–   वन पास की जलवायु को नर्म बनाकर बादलों को आकर्षित करते हैं जिससे वर्षा होती है। वन विनाश के कारण पानी की उपलब्धता कम हो गई है। वनों की कटाई से जनसंतुलन बिगड़ जाता है। यही नहीं, वनों के खत्म होने से तालाब और कुएं भी सूख जाते हैं। और वर्ष भर बहने वाले स्त्रोत भी बरसाती होकर रह जाते हैं।

मिट्‌टी का कटाव

   वनों की अनुपस्थिति में वर्षा का जल बिना किसी अवरोध के सीधे भूमि पर गिरता है। जिससे मिट्टी पर तीव्र आघात होता है और मिट्टी की क्षति होती है। जबकि वनों में वृक्षों की जड़े मिट्‌टी के नीचे तक जाकर मिट्‌टी को जकड़े रहती हैं जिससे वर्षा के कारण मिट्‌टी का कटाव नहीं होता और भूमि की उत्पादकता बनी रहती है परंतु वनों के विनाश के कारण मिट्‌टी का कटाव सुगमता से और अधिक मात्रा में होती है।

भूस्खलन               

   वनों की अत्यधिक कटाई से भूस्खलन में वृद्धि हो जाती है। भूस्खलन में जन एवं संपत्ति की अपार क्षति होती है।

वनोविनाश या वनोन्मूलन को रोकने के उपाय

–   वनोन्मूलन को रोकने के लिए निम्नलिखित उपायों को किया जाना चाहिए-

वन प्रबंधन – वनोन्मूलन को रोकने के लिए समुचित वन प्रबंधन नीति अपनाई जानी चाहिए। इसके अंतर्गत:

   वनों के पेड़ों की कटाई विवेकपूर्ण एवं वैज्ञानिक ढंग से की जानी चाहिए।

   वनों पर विनाशकारी प्रभाव डालने वाले पर्यावरणीय घटकों, जैसे भूमि, वन, पौधों में रोग आदि से वनों की रक्षा हेतु कार्यक्रम के विशेष प्रयास किए जाने चाहिए।

   वृक्षारोपण अधिक किया जाना चाहिए। किसी स्थान में विशेष आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुसार ही वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।

   प्राकृतिक वन पौधों के स्थान पर बागान नहीं लगाने चाहिए। हिमालय के कई क्षेत्रों विशेषकर हिमाचल प्रदेश में वनों को काटकर सेब की खेती के कारण स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुँचा है।

वन संरक्षण

–   वन विनाश को नियंत्रित करने के लिए वन प्रबंधन के साथसाथ वन संरक्षण की भी आवश्यकता है। इस हेतु सरकार को वन क्षेत्रों को अपने अधीन लेकर वनों की कटाई पर पूर्ण नियंत्रण लगा देना चाहिए। जैसा कि भारत में वन सुरक्षा के अंतर्गत सरकार ने संवेदनशील जंगली पेड़ों की कटाई पर पूर्णत: रोक लगा दी है।

सामाजिक वानिकी (Social Forestry)

–   सामाजिक वानिकी से अभिप्राय वन विकास की उस प्रणाली से है जिसके द्वारा समुदाय की आर्थिक तथा सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर वृक्षारोपण तथा ईंधन की लकड़ी प्राप्त करने के लिए वृक्ष कटाव के कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं।

    इसके अंतर्गत बंजर भूमि, ग्राम समाज की परती भूमि, नहरों, सड़कों एवं रेल लाइनों के दोनों ओर की खाली पड़ी भूमि, विकृत वन खंडों में वृक्षारोपण किया जाता है। संक्षेप में, सामाजिक वानिकी के लाभ निम्नलिखित हैं-

   रिक्त पड़ी भूमि का व्यापक उपयोग

   बेरोजगारों को काम

   मनोरंजन स्थलों को विकास

   कुटीर उद्योगों का विकास

   दूषित वातावरण की स्वच्छता

   ग्रामीण शिल्पियों को काम

   गरीबों की आय में वृद्धि

परिवहन मार्गों का विकास

–   वनों की सुरक्षा के लिए जंगली क्षेत्रों में सड़क परिवहन तथा संचार के साधनों का विकास करना नितांत आवश्यक है। इससे वनों को सुरक्षित रखने में आसानी होगी।

जनप्रयास

–   वनों के महत्त्व के संबंध में जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। जब तक नागरिकों को यह अहसास नहीं होगा कि वन हमारे जीवन की आधारभूत आवश्यकता है, तब तक वनोन्मूलन नहीं रुकेगा।

   प्राचीनकाल से भारत में वनों को अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है। जैसा कि अग्नि पुराण में कहा गया है- “एक वृक्ष दस पुत्रों के बराबर होता है।” इसी से वनों का महत्त्व स्पष्ट होता है। दुर्भाग्यवश जनसंख्या वृद्धि एवं अज्ञानता के कारण वर्तमान में वनों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है।

   वनों के विनाश से उत्पन्न होने वाले गंभीर दुष्परिणामों के प्रति समय रहते सचेत करने का प्रयास करना चाहिए एवं शासन को इस संबंध से एक निश्चित वन नीति निर्धारित करके लोगों में वन संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने का प्रयास करना चाहिए।

   इस दिशा में चमोली में प्रारंभ हुआ चिपको आंदोलन, होशंगाबाद का मिट्‌टी बचाओ अभियान तथा श्यामपुर प्रखंड की महिलाओं को लकड़ी न काटने का संकल्प जन प्रयासों के उल्लेखनीय उदाहरण कहे जा सकते हैं।

   वन विनाश के खिलाफ कई पर्यावरणीय नारे लगाए जा रहे हैं, यथापश्चिमी घाट को बचाओ, बीमार हिमालय की रक्षा करो, अस्वस्थ गंगा को बचाओ आदि। रेनी ग्राम की महिलाओं द्वारा वनों के विनाश के विरुद्ध चलाया गया जन आंदोलन अब अफ्रीका तथा लैटिन अमेरिका के कई देशों में पहुँच गया है। अमेजन बेसिन में वनों के बड़े पैमाने पर सामूहिक सफाए के खिलाफ व्यापक आंदोलन प्रारंभ हो चुका है।

   सन् 1952 की वन नीति के अनुसार जुलाई, 1952 से भारत सरकार ने वन महोत्सव मनाना प्रारंभ किया है।

    वन महोत्सव आंदोलन का मूल आधार ‘वृक्ष का अर्थ जल’ है, जल का अर्थ रोटी है और रोटी ही जीवन है। यह निर्विवाद सत्य है कि वनों के बिना धरातल पर किसी भी जीवजंतु का जीवित रहना संभव नहीं है।

    इसलिए वनसंरक्षण को सर्वोत्तम प्राथमिकता दी जाए।

पर्यावरण संरक्षण के लिए सरकारी उपाय

भारत में पर्यावरण की रक्षा के लिए एवं पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के लिए निम्नलिखित प्रयास किए गए हैं–

पर्यावरण संरक्षण विभाग का गठन

–   भारत में 1980 में एक पर्यावरण संरक्षण विभाग गठित किया गया केंद्रीय सरकार का विभाग है तथा राज्य सरकारों से भी कहा गया है कि वे पर्यावरण विभाग स्थापित करें।

    इन विभागों का कार्य पर्यावरण संरक्षण नीतियाँ बनाना और उन्हें लागू करना है।

व्यापक पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986

–   सन् 1986 में एक व्यापक पर्यावरण संरक्षण अधिनियम पूर्व कमियों को दूर करने के लिए लाया गया।

    इस अधिनियम के अंतर्गत अनेक केंद्रीय और राज्य के अधिकारों को अधिकार सौंपे गए।

   20 राज्य सरकारों को यह अधिकार दिए गए जो अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन के लिए निर्देश जारी करने के लिए दिए गए थे।

जैव-विविधता अधिनियम-2002

–   देश के जैविक संसाधनों तक पहुँच को विनियमित करना, जिसका उद्देश्य जैविक संसाधनों के उपयोग में होने वाले लाभ में न्यायोचित भाग सुनिश्चित करना है, साथ ही जैविक संसाधनों से संबंधित सहकारी ज्ञान विनियमित करना है।

   सरकार द्वारा जैव विविधता के संरक्षण से संबंधित मामलों

को देखने हेतु बनाई एजेंसियों में समन्वय सुनिश्चित करने के लिए एक जैव विविधता संरक्षण योजना तैयार की गई है।

–   चेन्नई में एक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण स्थापित किया गया है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

–   यह वन व पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त संस्था है। (जल प्रदूषण नियंत्रण एक रोकथाम) अधिनियम 1974 के प्रावधानों के अंतर्गत सितंबर, 1974 में बोर्ड की स्थापना की गई।

–   यह राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा प्रदूषण नियंत्रण समितियों की गतिविधियों को समन्वित करता है। साथ ही, पर्यावरण संबंधी प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण से संबंधित सभी मामलों पर केंद्र सरकार को सलाह देता है।

–   केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों/प्रदूषण नियंत्रण समितियों तथा अन्य संस्थाओं के सहयोग से देश भर में 90 नगरों/महानगरों में 295 परिवेशी वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों की स्थापना की है जो परिवेशी वायु की गुणवत्ता पर नियमित निगरानी रखते हैं।

राष्ट्रीय वनारोपण तथा पारिस्थितिकी विकास बोर्ड

–   इसकी स्थापना 1992 में की गई थी। इसके उत्तरदायित्वों में देश में वनारोपण, पारिस्थितिकी कायम रखना तथा पारिस्थितिकी विकास की गतिविधियों को बढ़ावा देना शामिल है।

राष्ट्रीय वायु गणुवत्ता निगरानी कार्यक्रम

 –  इसके अंतर्गत नियमित निगरानी के लिए चार वायु प्रदूषणों के रूप में जैसे सल्फर डाईऑक्साइड (So2) नाइट्रोजन ऑक्साइड (No2) की पहचान स्थगित विविक्त पदार्थ (M.P.M) तथा अत: श्वसनीय स्थगित विविक्त पदार्थ के रूप में की गई है।

–   इसके अलावा देश में सात महानगरों में अत: श्वसनीय सीसा व अन्य विषैले पदार्थ तथा बहुचक्रीय गंधीय हाइड्रोकार्बन पर निगरानी रखी जाती है।

पर्यावरण संरक्षण संबंधी नीतियाँ

–   राष्ट्रीय वन नीति 1986, प्रदूषण निवारण के लिए प्रारूप नीति विवरण दस्तावेज 1991, वन संरक्षण अधिनियम 1980, 1988, जल रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1977, 1988, वायु रोकथाम तथा प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981, 1987, जल राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना आदि प्रमुख हैं।

राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय

–   गंगा कार्य योजना चरणI के कार्य 1985 में शुरू किए थे, जिन्हें 31 मार्च, 2000 को बंद कर दिया गया। राष्ट्रीय नदी संरक्षण प्राधिकरण की संचालन समिति ने गंगा कार्य योजना और नदियों की सफाई संबंधित चल रही अन्य योजनाओं के कार्य की प्रगति की समीक्षा की।

    गंगा कार्य योजना के चरणI के तहत प्रदूषण कम करने से संबंधित 261 योजनाओं में से 258 योजनाओं को पूरा किया जा चुका है तथा शेष योजनाएं 30 सितंबर, 2001 तक पूरी होनी थीं।

–   गंगा कार्य योजना के दूसरे चरण का राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्य योजना (एन.आर.सी.पी) के साथ विलय कर दिया गया है। इस विस्तृत कार्य योजना के अंतर्गत अब तक 65 योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं।

 पर्यावरण संरक्षण संबंधी सुझाव

    प्राकृतिक पर्यावरण पर मुख्यत: तीन प्रकार के संकट होते हैं- दूषित वातावरण अधिउपयोग तथा विनाश प्राकृतिक वातावरण को इन संकटों का सामना करने के लिए आवश्यक कार्य के दो पहलू हो सकते हैं- (अ) विनियामक (ब) सुरक्षात्मक।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा विकास

–   वन तथा पर्यावरण मंत्रालय के तहत गठित अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व समेकित विकास विभाग (I.C.S.D), संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम नैरोबी, दक्षिण एशिया सहयोग पर्यावरण कार्यक्रम, कोलम्बों तथा समेकित विकास से संबंधित मामलों पर प्रमुख केंद्र के तौर पर काम करता है।

–   केंद्र सरकार से यह मंत्रालय पर्यावरण से संबंधित विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों एवं संधियों के लिए प्रमुख एजेंसी के रूप में भी काम करता है।

महत्वपूर्ण तथ्य

    पर्यावरण की दृष्टि से वन, पेड़-पौधे और वनस्पति से आच्छादित वे क्षेत्र हैं जो वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं और प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया से वापस ऑक्सीजन देकर वायुमंडल को संतुलित रखते हैं।

–   वैज्ञानिकों के अनुसार मानव विकास के पूर्व ही वनों का विकास हो गया था प्रारंभिक अवस्था में पृथ्वी का लगभग 25 प्रतिशत भाग इन वनों से ढका था, पृथ्वी पर वन संसाधन भूपरिस्थितिकी के सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। मानव ने इन वन संसाधनों का उपयोग कई रूपों में किया है तथा इसके साथ सामंजस्य भी कई रूपों में स्थापित किया है। इसी कारण वन मानव के पालन गृह रहे हैं।

   वनों का प्रयोग केवल लकड़ी का ईंधन या कच्चे माल के रूप में प्रयोग करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इनके अनेक पर्यावरणीय एवं भौगोलिक महत्त्व हैं।

   ये ऑक्सीजन (प्राण वायु) के संचित कोप स्थल हैं। जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर ऑक्सीजन देते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से विश्वतापन रोकने में इनकी महती भूमिका हैं।

   वन आच्छादित क्षेत्र वायुमंडल की आर्द्रता बनाए रखते हैं जिससे अधिक वर्षा की संभावना रहती है।

   ये नदियों के प्रवाह को नियमित करते हैं, उनके प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं, मिट्टी को बहकर जाने से रोकते हैं, बाढ़ रोकते हैं या कम करते हैं।

   वन पानी और मिट्‌टी जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण (conservation) करते हैं। भूमि क्षरण रोकते हैं। भूसतही जल को रोककर उन्हें स्वच्छ कर भूमिगत जल भेजते हैं तथा जमीन की नमी को बनाए रखते हैं।

   अनेक पशुपक्षी और जीवजंतुओं का ये आश्रयस्थल होते हैं। शेर जैसे वन्य जीव को आश्रय देकर पर्यावरण संतुलन की भूमिका निर्वाह करने में सहायक बनते हैं।

   वनों से औषधियाँ प्राप्त होती हैं। जिससे अनेक अस्वस्थ लोगों का उपचार संभव है।

   जलचक्र तथा वायुचक्र में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।

   मनोरंजन स्थल के रूप में विकसित कर इन्हें आय का साधन बनाया जा सकता है।

   गोंद, लाख, कत्था, शहद, रबड़, मोम और न जाने कितने प्रकार की गौण उपज वनों में प्राप्त होती है।

   कई प्रकार के कुटीर उद्योगों को कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। जैसेबेंत का फर्नीचर, खिलौने आदि।

   वन भूमि की उर्वरकता को बढ़ाते हैं। वृक्षों से भूमि पर गिरने वाली पत्तियाँ आदि सड़गल मिट्टी में मिल जाती है। इससे मिट्‌टी को जीवाशम प्राप्ति होती है।

   उद्योगों से होने वाले प्रदूषण को रोकते हैं। घनी वृक्षावली कई प्रकार की विषैली गैसों का अवशोषण करती है। वृक्ष ध्वनि प्रदूषण को भी कम करते हैं।

   वन किसी भी राष्ट्र की जीवन रेखा (Life Line) हैं, क्योंकि राष्ट्र विशेष के समाज की समृद्धि तथा कल्याण उस देश के स्वास्थ्य एवं समृद्ध वन संपदा पर प्रत्यक्ष रूप से आधारित होता है। वन प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के जैविक संघटकों में से एक महत्त्वपूर्ण संघटक है तथा पर्यावरण की स्थिरता तथा पारिस्थितिकीय संतुलन उस क्षेत्र की वन संपदा की दशा पर आधारित होता है।

Faq

वनोन्मूलन से क्या प्रभाव पड़ता है?

पर्यावरण का दुष्प्रभाव, पानी की कमी, मिट्‌टी का कटाव, भूस्खलन

उन्मूलन के कारक और उनके प्रभाव क्या है?

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