पृथ्वी की आंतरिक संरचना एवं इतिहास के नोट्स, PDF सहित

नमस्कार हम भूगोल विषय के महत्वपूर्ण अध्याय में से एक पृथ्वी की आंतरिक संरचना के तथा उत्पत्ति एवं इतिहास के बारे में विस्तार पूर्वक अध्ययन करेंगे। इस अध्ययन के दौरान हम विभिन बिन्दुओ पर चर्चा करेंगे जैसे पृथ्वी की आंतरिक संरचना, पृथ्वी की उत्पत्ति, पृथ्वी का इतिहास, पृथ्वी की भू-वैज्ञानिक समय सारिणी इत्यादि के बारे में विस्तार पूर्वक चर्चा करेंगे तथा जानेंगे की किस प्रकार आप पृथ्वी के विभिन्न पहलुओं को समझ पायेंगे। तो आइये शुरू करते है पृथ्वी की आंतरिक संरचना एवं इतिहास के बारे में अध्ययन।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना एवं इतिहास के नोट्स, PDF सहित

पृथ्वी की उत्पत्ति – 

पृथ्वी की उत्पत्ति के सम्बन्ध अनेक परिकल्पनाएँ दी गई हैं, जिसमें निहारिका, द्वैतारक व बिग बैंग सिद्धान्त प्रमुख हैं।

निहारिका परिकल्पना – फ्रांसीसी गणितज्ञ लाप्लास द्वारा प्रस्तुत की गई। जिसके अनुसार तप्त व गतिशील निहारिका से पदार्थ अलग होता है जिसके चारों और विभिन्न पदार्थों का संग्रहण होता है व कालान्तर में इसके शीतल होने के कारण ग्रहों का निर्माण होता है जिसमें पृथ्वी भी शामिल है।

द्वैतारक परिकल्पना – सर जेम्स जींस के द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्त, जिसके अनुसार ब्रह्मांड में सूर्य के अतिरिक्त एक अन्य तारा सूर्य के नजदीक से गुजरा तो गुरुत्वाकर्षण बल के कारण सूर्य से कुछ पदार्थ बाहर की ओर निकलकर अलग हो गये। यही पदार्थ अन्य तारे के दूर जाने पर सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने लगा व धीरे-धीरे संघनित होकर ग्रह के रूप में बदल गया।
मूलत: ये दो परिकल्पनाएँ ही पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित हैं कालान्तर में विद्वान संपूर्ण ब्रह्मांड की उत्पत्ति पर विचार करने लगे जिसमें बिग बैंग प्रमुख है।

बिंग बैंग सिद्धांत (जार्ज लैमेटेयर) – ब्रह्मांड की उत्पत्ति का नवीनतम सिद्धान्त, जिसके अनुसार वर्तमान से 15 अरब वर्ष पूर्व घनीभूत पदार्थों वाले विशाल अग्निपिण्ड में आकस्मिक जोरदार विस्फोट हुआ, जिससे विकिरण उत्पन्न हुई व ब्रह्मांड का निर्माण हुआ।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना

भूकंपीय तरंगों के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भाग में तीन परतें निश्चित की गई हैं –
1. क्रस्ट 2. अनुपटल 3. कोर

क्रस्ट – यह पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है एवं इसकी मोटाई औसतन 30 किमी. मानी जाती है एवं घनत्व 3 ग्राम/घनसेमी. माना जाता है। यह हल्की चट्टानों से बनी है।

अनुपटल या मेंटल – क्रस्ट से नीचे 2900 किमी. की गहराई तक मेंटल का विस्तार है। ‘दुर्बलतामण्डल’ मेंटल में ही पाया जाता है। ‘दुर्बलतामण्डल’ ज्वालामुखी उदˎगार के समय निकले लावा का मुख्य स्रोत है। यह ठोस शैलों से निर्मित है।

कोर – इसे दो भागों में बाँटा जाता है – आन्तरिक कोर व बाह्य कोर। बाह्य कोर 2900 किमी. गहराई से 5150 किमी. तक पाया जाता है एवं उसके बाद 6371 किमी. गहराई तक आन्तरिक कोर पाई जाती हैं। बाह्य कोर तरल अवस्था में व आंतरिक कोर ठोस अवस्था में पाया जाता है।

PRITHVI KI antrik sanrachna diagram

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी प्राप्त करने के साधन
इन्हें निम्न वर्गों में रखा जा सकता है –

1. अप्राकृतिक साधन
तापमान
दबाव
घनत्व

2. प्राकृतिक साधन
ज्वालामुखी उदˎगार
भूकंप विज्ञान

3. उल्कापात

1. अप्राकृतिक साधन
तापमान – पृथ्वी की सतह से केन्द्र की ओर तापमान निरंतर बढ़ता है इसके बावजूद भूगर्भ के सभी पदार्थ पिघली हुई अवस्था में न होकर दबाव के कारण ठोस अवस्था में विद्यमान हैं क्योंकि दबाव के कारण चट्टानों के पिघलने का ताप बिन्दु उच्च हो जाता है।

दबाव – भूगर्भ की परतों के बढ़ते दबाव के कारण केन्द्र की ओर घनत्व बढ़ता जाता है व चट्टानें द्रव रूप में ठोस का आचरण करती हैं।

घनत्व – संपूर्ण पृथ्वी का घनत्व 5.5 gcm-3 है। निरंतर दबाव व भारी पदार्थों के कारण केन्द्र की ओर घनत्व बढ़ता जाता है।

2. उल्कापात – उल्कापिण्ड व पृथ्वी दोनों सौर परिवार का भाग हैं अत: उल्कापिण्ड के अध्ययन से पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी मिलती है।

3. प्राकृतिक साधन –
ज्वालामुखी – ज्वालामुखी क्रिया से निकले लावा व अन्य पदार्थों से आंतरिक संरचना की जानकारी मिलती है।

भूकंप – भूकंपीय तरंगों की प्रकृति से अर्थात् पी-तरंगें (ठोस, तरल व गैस में संचरण) व S तरंगें (केवल ठोस में संचरण) के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया जाता है। भूकंपीय तरंगें समान घनत्व वाले पदार्थ में सीधी गति करती हैं अत: इनकी गति में विचलन के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भाग के ठोस व तरल होने का पता चलता है।

उदाहरण – S तरंगें केवल ठोस में गति करती हैं। 2900 किमी. की गहराई के बाद ‘S तरंगें’ लुप्त हो जाती हैं जिससे पता चलता कि 2900 किमी. से अधिक गहराई वाला भाग तरल अवस्था में है।

PRITHVI KI antrik sanrachna waves

पृथ्वी की भू-वैज्ञानिक समय सारिणी

भू-वैज्ञानिक समय सारिणी के अन्तर्गत पृथ्वी की विभिन्न परतों, चट्टानों व जीव विकास का अध्ययन किया जाता है। पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास को पाँच प्रमुख कल्पों में विभाजित किया जाता है। पुन: इनको कई युग व शकों में विभाजित किया जाता हैं।
जिसे निम्न चार्ट की सहायता से समझा जा सकता है –

कल्पयुगशकप्रारम्भ होने का समय
1. एजोइक प्री कैम्ब्रियन
आर्कियन
 
2. पैल्योजोइकप्रथम युगकैम्ब्रियन
आर्डोविसियन
सिल्यूरियन
डिवोनियन
कार्बोनिफेरस
पार्मियन
600 मिलियन वर्ष पूर्व
3. मेसोजोइकद्वितीय युग1.  ट्रियासिक
2. जुरैसिक
3. क्रिटैशियस 
225 मिलियन वर्ष पूर्व
4. सेनोजोइकतृतीय युगइयोसीन
ओलिगोसीन
मायोसीन
प्लायोसीन 
70 मिलियन वर्ष पूर्व
5. नियोजोइकचतुर्थयुगप्लीस्टोसीन
होलोसीन (आधुनिक युग) 
1 मिलियन वर्ष पूर्व


एजोइक (आधकल्प)

1. प्री- कैम्ब्रियन –
(i) पृथ्वी गैसीय अवस्था से तरल अवस्था व बाद में ठोस अवस्था में परिवर्तित हुई।
(ii) घने वायुमंडल का निर्माण हुआ।
(iii) भू-पृष्ठ के शीतल होने के कारण जलवाष्प का निर्माण हुआ।
(iv) तीव्र वर्षा के कारण नदी व सागर का निर्माण हुआ।
(v) केवल सागरीय घास का उदˎभव।

पैल्योजोइक कल्प: प्रथम युग

1. कैम्ब्रियन
(i) इसमें छिछले सागरों का विस्तार हुआ।
(ii) यूरोप में ज्वालामुखी क्रियाएँ आरम्भ हुईं, परन्तु पर्वत निर्माण के कोई प्रमाण नहीं मिले।
(iii) सागरीय जीवों का विकास।  
(iv) भू-पृष्ठ पर गर्म व सम जलवायु का विस्तार।
(v) भूमि पर जीवन का विकास नहीं।

2. आर्डोविसियन –
(i) सागर निर्माण की प्रक्रिया जारी रही।
(ii) अवसाद जमाव से कुछ सागर सूख गए।
(iii) इसमें पर्वत निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ हुई।
(iv) समान जलवायु परन्तु जलवायु कटिबंधों का निर्माण नहीं हुआ।

3. सिलूरियन –
(i) पर्वत निर्माण की क्रिया सक्रिय रही, किन्तु आर्डोविसियन की तुलना में ज्वालामुखी क्रिया कम रही।
(ii) भारत व म्यांमार में चट्‌टानों का जमाव हुआ।
(iii) स्थल पर प्रथम बार पत्तीविहीन वनस्पति का विकास हुआ।
(iv) सागरीय वनस्पति व सागर में रीढ़ वाले जीवों का विकास जारी रहा।
(v) प्रवाल भित्ति का विकास।

4. डिवोनियन –
(i) सागर में संकुचन के परिणामस्वरूप स्थलभाग का विस्तार हुआ।
(ii) धरातल पर छोटी-छोटी झाड़ियों के साथ 40 फीट ऊँचे वृक्षों का विकास हुआ।
(iii) सागर में मछलियों का विकास, सार्क मछली का जन्म अत: इसे ‘मत्स्य युग’ भी कहते हैं।
(iv) उभयचर जीवों का विकास।

5. कार्बोनीफेरस –
(i) उत्तरी अमेरिका व यूरोप में दलदली भागों का निर्माण हुआ।
(ii) उत्तरी गोलार्द्ध में कोयले का निर्माण महत्वपूर्ण घटना थी।
(iii) उष्णार्द्र जलवायु, जिससे घनी वनस्पति का विकास हुआ।
(iv) स्थल पर छोटे-छोटे जीवों व रेंगने वाले सरीसृप जीवों का विकास हुआ।

पर्मियन –
(i) भ्रंशन के कारण आंतरिक झीलों का विकास हुआ।
(ii) विश्व में पोटाश भंडार की रचना हुई।
(iii) यूरोप, एशिया व अमेरिका में ऊँचे पर्वतों का निर्माण हुआ।
(iv) पृथ्वी पर जलवायु की विभिन्न दशाओं के परिणामस्वरूप कटिबंधों का निर्माण शुरू हुआ।
(v) पर्णपाती वृक्षों का विकास।

मेसोजोइक: द्वितीय युग

1. ट्रियासिक
(i) चिकनी मिट्‌टी व बालुका पत्थर का जमाव हुआ।
(ii) आर्द्र जलवायु के कारण कोणधारी व मुलायम पत्ती वाले वृक्षों का विकास हुआ।
(iii) मक्खियों व दीमक का विकास।
(iv) सागर में मांसाहारी मत्स्य तुल्य सरीसृप का विकास।

2. जुरैसिक
(i) फ्रांस, दक्षिणी जर्मनी व स्विट्जरलैण्ड में चूना पत्थर का जमाव हुआ।
(ii) पुष्प वाली वनस्पति का विकास।
(iii) कोणधारी व मुलायम पत्ती वाले वनों की प्रधानता।
(iv) अत्यधिक लंबे व भारी सरीसृपों अर्थात् डायनासोर का विकास हुआ।
(v) उड़ने वाले पक्षियों का विकास हुआ।

3. क्रिटेशियस –
(i) स्थलीय भागों में बड़े-बड़े दलदलों का विकास हुआ।
(ii) कनाडा, अलास्का, मैक्सिको, इत्यादि क्षेत्रों में खड़िया मिट्‌टी का जमाव हुआ।
(iii) रॉकी, एण्डीज व पनामा कटक की उत्पत्ति हुई।
(iv) प्रायद्वीपीय भारत में बेसाल्टिक लावा का जमाव हुआ।
(v) सार्क व हेरिंग मछली का विकास हुआ।

सिनोजोइक कल्प: तृतीय युग

इयोसीन –
(i) हिंद व अटलांटिक महासागर का विकास हुआ।
(ii) बड़े स्तर पर ज्वालामुखी क्रिया के कारण स्कॉटलैण्ड, आर्कटिक क्षेत्र व भारत के प्रायद्वीपीय भाग में अत्यधिक लावा निक्षेप हुआ।
(iii) म्यांमार में प्राचीन बंदर व गिब्बन का उदय हुआ।
(iv) महान हिमालय का निर्माण प्रारम्भ हुआ।

ओलिगोसीन –
(i) अमेरिका व यूरोप में भू संचलन के परिणामस्वरूप आल्पस पर्वत का निर्माण प्रारंभ हुआ।
(ii) उष्ण व शीतोष्ण कटिबंधीय जलवायु के साथ शीत जलवायु का विकास हुआ।
(iii) घास के मैदानों का विकास, जिससे स्तनधारी जीवों का विकास हुआ।
(iv) पुच्छविहीन बंदर का विकास, जो मानव का पूर्वज था।

मायोसीन –
(i) स्थलीय क्षेत्र के विस्तार व सागर के संकुचन के कारण भूमध्यसागर चारों ओर भूमि से आवृत्त हो गया।
(ii) मध्य हिमालय का निर्माण व महान हिमालय की ऊँचाई में वृद्धि हुई।
(iii) सागर में हड्‌डी वाले जीवों का विकास हुआ।
(iv) अंटार्कटिका में पेंग्विन का विकास हुआ।

प्लायोसीन –
(i) इसमें महाद्वीपों व महासागरों के वर्तमान स्वरूप का विकास हुआ।
(ii) उत्तरी सागर, काला सागर जैसे स्थलीय सागरों का निर्माण हुआ।
(iii) शिवालिक हिमालय का निर्माण हुआ।
(iv) समुद्रों के अवसादीकरण से तटीय मैदानों का निर्माण हुआ।
(v) आरम्भिक मानव की उत्पत्ति हुई।

नियोजोइक: चतुर्थ युग

प्लीस्टोसीन –
(i) तापमान अत्यधिक निम्न होने के कारण सभी महाद्वीप बर्फ की मोटी चादर से ढक गये अत: इसे ‘हिमयुग’ भी कहा जाता है।
(ii) उत्तरी अमेरिका की वृहद् झीलों व नार्वे के फियोर्ड तट का विकास हुआ।
(iii) हिमानीकरण से प्रवालों का विनाश हो गया। हिम पिघलने पर उनका पुन: विकास हुआ।
(iv) स्थलमंडल पर आदि मानव का विकास हुआ।
(v) शंक्वाकार वनस्पति का विकास हुआ।

होलोसीन (आधुनिक युग)

(i) हिमकाल के बाद तापमान में वृद्धि से जंतुओं व पादपों का विकास हुआ व वर्तमान स्वरूप का निर्माण हुआ।
(ii) आधुनिक मानव का जन्म हुआ।
(iii) कृषि व पशुपालन आदि क्रियाओं की शुरुआत हुई।

मेघालय युग – होलोसीन युग के सबसे नवीनतम भाग में पृथ्वी पर भयानक सूखा पड़ा और तापमान में भी काफी गिरावट देखी गई। वैश्विक शुष्कता का युग।

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महत्वपूर्ण प्रश्न

पृथ्वी की संरचना का मुख्य स्रोत क्या है?

पृथ्वी के आंतरिक भाग के बारे में हमारा अधिकांश ज्ञान आंकलन और अनुमानों पर आधारित है। अप्रत्यक्ष स्रोतों में दाब, तापमान, घनत्व, गुरुत्वाकर्षण और चुंबकीय क्षेत्र आदि स्रोत शामिल हैं।

पृथ्वी की कितनी परतें होती है?

पृथ्वी की तीन मुख्य परतें हैं: क्रस्ट, मेंटल और कोर। 

पृथ्वी का केंद्र कहां है?

कोर पृथ्वी की सतह से लगभग 2,900 किलोमीटर (1,802 मील) नीचे पाया जाता है, और इसकी त्रिज्या लगभग 3,485 किलोमीटर (2,165 मील) है।

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