भारत की जलवायु कैसी है? प्रकार, कारक एवं भारत में मानसून

नमस्कार आज हम भारतीय भूगोल के महत्वपूर्ण अध्याय भारत की जलवायु के विषय में अध्ययन करेंगे तथा साथ ही जानेंगे की भारत की जलवायु कैसी हैं? भारत में मानसून इत्यादि सवालो का जवाब देने का प्रयास करेंगे।

जलवायु किसे कहते हैं?

किसी स्थान अथवा प्रदेश के तापमान, वर्षा, वायुदाब तथा पवनों की दिशा एवं गति की समस्त दशाओं के योग को जलवायु कहते हैं।

मानसून किसे कहते हैं?

‘मानसून’ शब्द अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ ऋतु होता है अर्थात् वर्ष भर में समय-समय पर होने वाले वायु की दिशा में परिवर्तनों से हैं, अत: मानसूनी पवनें वे पवनें हैं, जिनकी दिशा ऋतु के अनुसार बिल्कुल बदल जाती है।

भारत की जलवायु कैसी है?

भारतीय जलवायु मूलत: उपोष्ण मानसूनी प्रकार की है। ‘मानसून’ शब्द अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ ऋतु होता है अर्थात् वर्ष भर में समय-समय पर होने वाले वायु की दिशा में परिवर्तनों से हैं, अत: मानसूनी पवनें वे पवनें हैं, जिनकी दिशा ऋतु के अनुसार बिल्कुल बदल जाती है। ये पवनें ग्रीष्म ऋतु में छह माह समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु में छह माह स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं। 

कर्क रेखा देश के बीच से गुजरती है, जिसके कारण दक्षिणी भारत उष्ण कटिबंध और उत्तरी भारत शीतोष्ण कटिबंध में आता  है परंतु ऊँचे हिमालय के अवरोधात्मक प्रभाव, दक्षिणी भारत की प्रायद्वीपीय स्थिति, भूमध्यरेखा की समीपता, सागरीय प्रभाव आदि कारणों से भारतीय जलवायु को विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

मौसम (Weather) :- वायुमंडल की क्षणिक अवस्था है, जबकि जलवायु का तात्पर्य अपेक्षाकृत लंबे समय की मौसमी दशाओं के औसत से होता है। मौसम जल्दी-जल्दी बदलता है, जैसे कि एक दिन में या एक सप्ताह में, परंतु जलवायु में परिवर्तन 25 अथवा इससे भी अधिक वर्षों में होता है।

  भारत की जलवायु पर मुख्यत: दो बाहरी कारकों का विशेष प्रभाव पड़ता है-

(1)  उत्तर की ओर हिमालय की ऊँची हिमाच्छादित श्रेणियाँ इसको संशोधित महाद्वीपीय जलवायु (Modified Continental Climate) का रूप देती हैं।

(2) दक्षिण की ओर हिन्द महासागर की निकटता इसको उष्ण मानसूनी जलवायु (Tropical Monsoon) रूप देती हैं जिसमें उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की आदर्श दशाएँ प्राप्त होती हैं।

वास्तव में भारत उष्ण मानसूनी जलवायु का आदर्श देश है, जिसके मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(i) हिमालय की विशिष्ट स्थिति

(ii) अक्षांशीय विस्तार, महाद्वीपीयता

(iii) प्रायद्वीपीय भारत का दूर तक हिन्द महासागर में विस्तार

(iv)  विषुवत् रेखा से निकटता

(v) कर्क रेखा का देश के मध्यवर्ती भाग से गुजरना

(vi) कुछ भागों की समुद्रतल से अधिक ऊँचाई

(vii) दक्षिण भाग का तीन ओर से समुद्र द्वारा घिरा होना

अतः देश के विभिन्न भौतिक विभागों के तापमान में बड़ा अन्तर पाया जाता है।

महत्त्वपूर्ण तथ्य (Important facts)

(i) आम्र वर्षा (Mango Shower): – ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति के समय पूर्व मानसून बौछारें पड़ती हैं, जो केरल व तटीय कर्नाटक में आम बात है। स्थानीय तौर पर इस तूफानी वर्षा को आम्र वर्षा कहा जाता है, क्योंकि यह आम की फसल को जल्दी पकने में सहायता देती है।

(ii) फूलों वाली बौछार (Blossom Shower): – इस वर्षा से केरल व निकटवर्ती कहवा उत्पादक क्षेत्रों में कहवा के फूल खिलने लगते हैं।

(iii) काल बैसाखी (Nor Westers/Kaal Baisakhi): – असम और पश्चिम बंगाल में बैसाख के महीने में शाम को चलने वाली ये भयंकर व विनाशकारी वर्षायुक्त पवनें हैं। इनकी कुख्यात प्रकृति का अंदाजा इनके स्थानीय नाम काल बैसाखी से लगाया जा सकता है, जिसका अर्थ है- बैसाख के महीने में आने वाली तबाही। चाय, पटसन व चावल के लिए ये पवनें अच्छी हैं। असम में इन पवनों को ‘बारदोली छीड़ा’ (Bardoli Chheerha) कहा जाता है।

(iv) लू (Loo): – उत्तरी मैदान में पंजाब से बिहार तक चलने वाली ये पवनें शुष्क, गर्म व पीड़ादायक होती हैं। दिल्ली और पटना के बीच इनकी तीव्रता अधिक होती है।

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक  (Factors determining the climate of India)

भारत की जलवायु को नियंत्रित करने वाले अनेक कारक हैं, जिन्हें मुख्यत: दो वर्गों में बाँटा जा सकता है –

(क) स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक

(ख) वायुदाब एवं पवन संबंधी कारक

स्थिति तथा उच्चावच संबंधी कारक (Factors related to Location and Relief)

–   अक्षांश (Latitude): – कर्क रेखा पूर्व-पश्चिम दिशा में देश के मध्य भाग से गुजरती है। इस प्रकार भारत का उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में और दक्षिणी भाग उष्ण कटिबंध में स्थित है। उष्ण कटिबंध भूमध्य रेखा के अधिक निकट होने के कारण वर्षभर ऊँचे तापमान तथा कम दैनिक और वार्षिक तापांतर का अनुभव करता है। कर्क रेखा से उत्तर में स्थित भाग में भूमध्य रेखा से दूरी होने के कारण उच्च दैनिक तथा वार्षिक तापांतर के साथ विषम जलवायु पाई जाती है।

–   हिमालय पर्वत (The Himalayan Mountains):- उत्तर में ऊँचा हिमालय अपने सभी विस्तारों के साथ एक प्रभावी जलवायु विभाजक की भूमिका निभाता है। यह ऊँची पर्वत शृंखला उपमहाद्वीप को उत्तरी पवनों से अभेद्य सुरक्षा प्रदान करती है। जमा देने वाली ये ठंडी पवनें उत्तरी ध्रुव रेखा के निकट पैदा होती हैं और मध्य तथा पूर्वी एशिया में आर-पार बहती हैं। इसी प्रकार हिमालय पर्वत मानसून पवनों को रोककर उपमहाद्वीप में वर्षा का कारण बनता है।

–   जल और स्थल का वितरण (Distribution of Land and Water):- भारत के दक्षिण में तीनों ओर हिंद महासागर व उत्तर की ओर ऊँची व अविच्छिन्न पर्वत श्रेणियाँ हैं। स्थल की अपेक्षा जल देरी से गर्म होता है और देरी से ठंडा होता है। जल और स्थल के इस विभेदी तापन के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न वायुदाब प्रदेश विकसित हो जाते हैं। वायुदाब में भिन्नता मानसून पवनों के उत्क्रमण का कारण बनती है।

–   समुद्र तट से दूरी (Distance from the Sea):- लंबी तटीय रेखा के कारण भारत के विस्तृत तटीय प्रदेशों में समकारी जलवायु पाई जाती है। भारत के आंतरिक भाग समुद्र के समकारी प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में विषम जलवायु पाई जाती है। यही कारण है कि मुंबई तथा कोंकण तट के निवासी तापमान की विषमता और ऋतु परिवर्तन का अनुभव नहीं कर पाते हैं। दूसरी ओर समुद्र तट से दूर देश के आंतरिक भागों में स्थित दिल्ली, कानपुर और अमृतसर में मौसमी परिवर्तन पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं।

–   समुद्र तल से ऊँचाई (Altitude above sea level): – ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ तापमान घटता है। विरल वायु के कारण पर्वतीय प्रदेश मैदानों की तुलना में अधिक ठंडे होते हैं। उदाहरणतः आगरा और दार्जिलिंग एक ही अक्षांश पर स्थित हैं किंतु जनवरी में आगरा का तापमान 16°C जबकि दार्जिलिंग में यह 4°C होता है।

–   उच्चावच (Relief): – भारत का भौतिक स्वरूप अथवा उच्चावच तापमान, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा और वितरण को प्रभावित करता है। उदाहरणतः जून और जुलाई के बीच पश्चिमी घाट तथा असम के पवनाभिमुखी ढाल अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं जबकि इसी दौरान पश्चिमी घाट के साथ लगा दक्षिणी पठार पवनविमुखी स्थिति के कारण कम वर्षा प्राप्त करता है।

वायुदाब एवं पवनों से जुड़े कारक (Factors related to Air Pressure and Wind)

–   भारत की स्थानीय जलवायुओं में पाई जाने वाली विविधता को समझने के लिए निम्नलिखित तीन कारकों की क्रिया-विधि को जानना आवश्यक है।

   (i) वायुदाब एवं पवनों का धरातल पर वितरण,

   (ii) भूमंडलीय मौसम को नियंत्रित करने वाले कारकों एवं विभिन्न वायु संहतियों एवं जेट प्रवाह के अंतर्वाह द्वारा उत्पन्न ऊपरी वायुसंचरण और

    (iii) शीतकाल में पश्चिमी विक्षोभों तथा दक्षिण-पश्चिमी मानसून काल में उष्ण कटिबंधीय अवदाबों के भारत में अंतर्वहन के कारण उत्पन्न वर्षा की अनुकूल दशाएँ।

   उपर्युक्त तीनों कारकों की क्रिया-विधि को शीत व ग्रीष्म ऋतु के संदर्भ में अलग-अलग भली-भाँति समझा जा सकता है।

 भारतीय मानसून की उत्पत्ति (Origin of Indian Monsoon)

मानसून की उत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न भूगोलवेत्ताओं ने अपने-अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। भारतीय मानसून की उत्पत्ति की प्रक्रिया अत्यंत ही जटिल है।

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तापीय कारक (Thermal Concept): – तापीय कारक मानूसन की उत्पत्ति की संकल्पना है। इसमें सूर्य के उत्तरायण-दक्षिणायन के आधार पर भारत एवं हिन्द महासागर के तापमान में परिवर्तन को आधार मानकर मानसून की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है।
–   अरब भूगोलवेत्ताओं द्वारा तापीय संकल्पना का वर्णन किया गया, जिसके अनुसार जलीय एवं स्थलीय समीर के रूप में मानसूनी पवनों की उत्पत्ति को समझाया गया। सूर्य के उत्तरायण के साथ भारत का प्रायद्वीपीय क्षेत्र एवं तिब्बत के पठार का क्षेत्र अधिक गर्म हो जाता है और इससे निम्न वायुदाब का विकास होता है। इसी समय अरब सागर, बंगाल की खाड़ी एवं हिन्द महासागर में कम तापमान के कारण उच्च वायुदाब पाया जाता है। ऐसे में पवनें समुद्र से भारत के निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर प्रवाहित होने लगती हैं जो दक्षिण-पश्चिम मानूसन कहलाता है। इसमें आर्द्रता होने के कारण इससे भारत में वर्षा होती है।

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1.   जेट-स्ट्रीम सिद्धान्त (Jet Stream Theory): –

जेट-स्ट्रीम सिद्धान्त के अनुसार मानसून की उत्पत्ति पर वायुमण्डल की निम्न दशाओं का प्रभाव पड़ता है। यह सिद्धान्त एम.टी यिन ने दिया। मानसून की उत्पत्ति के लिए सतह के निकट निम्न दाब के अलावा ऊपरी वायुमंडल में भी निम्न दाब का होना आवश्यक है।

–   गंगा के मैदान के पूर्वी क्षेत्र में 12 किमी. की ऊँचाई पर पश्चिम से पूर्व की ओर उपोष्ण जेट स्ट्रीम प्रवाहित होती है।

–   ग्रीष्म ऋतु में ITCZ के विस्थापन के कारण यह उपोष्ण पश्चिमी जेट स्ट्रीम विस्थापित होकर हिमालय के उत्तर में चली जाती है।

–   प्रायद्वीपीय प्रदेश के ऊपर उपोष्ण जेट स्ट्रीम के साथ पूर्वी जेट स्ट्रीम प्रभावित होने लगती है।

–   ग्रीष्म ऋतु में तिब्बत के पठार के काफी गर्म होने के कारण उष्ण-पूर्वी जेट की उत्पत्ति होती है। तापीय प्रभाव के कारण तिब्बत के पठार के ऊपर क्षोभमण्डल में एक निश्चित ऊँचाई पर प्रतिचक्रवातीय दशाएँ बन जाती हैं। इससे पूर्वी जेट स्ट्रीम की उत्पत्ति होती है, इसे अस्थायी जेट स्ट्रीम कहते हैं।

 –   मानसून की उत्पत्ति में पूर्वी जेट हवाएँ सहायक होती हैं।

–   अन्त: उष्णकटिबन्धीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ)

यह निम्न वायुदाब पेटी है। जब ग्रीष्म काल में ITCZ उत्तरी मैदानी भाग पर विस्थापित हो जाता है तो दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें विषुवत् रेखा को पार करते हुए फेरल के नियमानुसार दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर चलने लगती हैं, जिसे भारत में मानसून का आगमन कहते हैं।

जबकि शीतऋतु में ITCZ की पेटी दक्षिण गोलार्द्ध में विस्थापित होने से उत्तर-पूर्व मानसूनी पवनें चलती हैं, जिसे लौटता हुआ मानसून कहते हैं जो कोरोमण्डल तट पर वर्षा करता है।

अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (Inter Tropical Convergence Zone – ITCZ)विषुवत् वृत्त पर स्थित अंत: उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र एक निम्न वायुदाब वाला क्षेत्र है। अत: इस क्षेत्र में वायु ऊपर उठने लगती है। इस क्षेत्र में व्यापारिक पवनें चलती हैं। जुलाई माह में ITCZ 20° से 25°उ. अक्षांशों के आस-पास गंगा के मैदान में स्थित हो जाता है। इसे कभी-कभी मानसूनी गर्त भी कहते हैं। यह मानसूनी गर्त उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत पर तापीय निम्न वायुदाब के विकास को प्रोत्साहित करता है। ITCZ के उत्तर की ओर खिसकने के कारण दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनें 40° और 60° पूर्वी देशांतरों के बीच विषुवत् वृत्त को पार कर जाती हैं। कोरियोलिस बल के प्रभाव से विषुवत् वृत्त को पार करने वाली इन व्यापारिक पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर हो जाती है। यही दक्षिण-पश्चिम मानसून है। शीत ऋतु में ITCZ  दक्षिण की ओर खिसक जाता है। इसी के अनुसार पवनों की दिशा दक्षिण-पश्चिम से बदलकर उत्तर-पूर्व हो जाती है, यही उत्तर-पूर्व मानसून है।

 2. अल-नीनो सिद्धांत (EI-Nino phenomenon): –

–   अल-नीनो सिद्धांत का प्रतिपादन अमेरिकी मौसम वैज्ञानिक सर गिल्बर्ट वाकर ने किया था।

–   यह सिद्धान्त मानसून उत्पत्ति से कहीं अधिक मानसून प्रभाव में सूखे की स्थिति का वर्णन करता है।

–   इस सिद्धांत के अनुसार मानसून का संबंध पेरु तट पर उत्पन्न होने वाली गर्म जलधारा से है।

गिल्बर्ट वाकर सिद्धान्त के अनुसार यह माना गया है कि समुद्री सतह के तापमान का प्रभाव वायु दाब एवं हवाओं पर पड़ता है। यह सिद्धान्त कर्क एवं मकर रेखाओं के बीच, हिंद महासागर एवं प्रशांत महासागर के सतह के जल के तापमान के अध्ययन पर आधारित है। इस सिद्धान्त के अनुसार हिंद महासागर एवं प्रशांत महासागर के ऊपर वायु दाब में Sea-Saw  प्रतिरूप पाया जाता है। जब प्रशांत महासागर के ऊपर वायु-दाब उच्च होता है, तब हिंद महासागर के ऊपर वायु-दाब निम्न होता है एवं यह स्थिति भारतीय मानसून के लिए अनुकूल होती है। यह संपूर्ण प्रक्रिया दक्षिणी दोलन (Southern Oscillation) के नाम से जानी जाती है। दक्षिण दोलन का काल 2 से 5 साल तक होता है।

दक्षिण दोलन को ‘वाकर चक्र’ (Walker cell) के नाम से भी जाना जाता है। इंडोनेशिया के ऊपर से ऊपर उठती हुई वायु दो वाकर चक्रों का निर्माण करती है। प्रथम चक्र के अन्तर्गत इंडोनेशिया से ऊपर उठती हुई वायु ठंडी होकर मध्य पूर्वी पाकिस्तान एवं उत्तर-पश्चिम भारत में नीचे उतरती है।

इसी प्रकार एक दूसरा चक्र इंडोनेशिया एवं दक्षिण अमेरिका के पश्चिम तट के बीच बनता है। इंडोनेशिया से ऊपर उठकर वायु पूर्वी प्रशांत महासागर में नीचे उतरती है। जहाँ प्रथम चक्र का कमजोर होना मानसून के लिए अनुकूल होता है, वहीं दूसरे चक्र का कमजोर होना भारतीय मानसून के लिए प्रतिकूल होता है। वास्तव में इंडोनेशिया (गर्म) एवं पूर्वी प्रशांत तट (ठंडा) वाकर चक्र को चालक बल प्रदान करता है। इस चक्र के कमजोर होने का कारण ‘अल-नीनो’ जल-धारा की उत्पत्ति होती है। इस जल-धारा की उत्पत्ति का अंतराल दो से पाँच वर्ष के बीच होता है। यह जलधारा पेरू के तट के निकट 4° से 35° दक्षिण अक्षांश के बीच प्रवाहित होती है। इसकी उत्पत्ति का संबंध विषुवत् रेखीय क्षेत्र में होने वाले वायु भार में परिवर्तन से है। ऐसी स्थिति में दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनों के कमजोर होने से प्रशांत महासागर की दक्षिणी विषुवतीय जलधारा भी कमजोर हो जाती है एवं इस जलधारा के विपरीत दिशा में अल-नीनो जलधारा प्रवाहित होने लगती है। इस जलधारा की उत्पत्ति के साथ ही पेरू तट के निकट ठंडे जल का ऊपर उठना बंद हो जाता है। प्रशांत महासागर में  गर्म अल-नीनो जलधारा के कारण वृहद् निम्न भार का निर्माण होता है एवं यहाँ से हवाएँ ऊपर उठ कर ऑस्ट्रेलिया एवं इंडोनेशिया के निकट नीचे उतरने लगती हैं। इस प्रकार दक्षिणी दोलन का सूचक नीचे गिरने लगता है एवं यहाँ कमी होने लगती है। इसे प्रशांत महासागर का वार्म फेज कहा जाता है। यह भारतीय मानसून के लिए प्रतिकूल परिस्थिति है।

अल-नीनो और भारतीय मानसून (El Nino and Indian Monsoon)अल-नीनो एक जटिल मौसम तंत्र है, जो हर पाँच या दस साल बाद प्रकट होता रहता है। इसके कारण संसार के विभिन्न भागों में सूखा, बाढ़ और मौसम की चरम अवस्थाएँ पाई जाती हैं।इस तंत्र में महासागरीय और वायुमंडलीय परिघटनाएँ शामिल होती हैं। पूर्वी प्रशांत महासागर में, यह पेरू के तट के निकट उष्ण समुद्री धारा के रूप में प्रकट होता है। इससे भारत सहित अनेक स्थानों का मौसम प्रभावित होता है। अल-नीनो भूमध्यरेखीय उष्ण समुद्री धारा का विस्तार मात्र है, जो अस्थायी रूप से ठंडी पेरूवियन अथवा हम्बोल्ट धारा (अपनी एटलस में इन धाराओं की स्थिति ज्ञात कीजिए) पर प्रतिस्थापित हो जाती है। यह धारा पेरू तट के जल का तापमान 10° सेल्सियस तक बढ़ा देती है। इसके निम्नलिखित परिणाम होते हैं।(i) भूमध्यरेखीय वायुमंडलीय परिसंचरण में विकृति;(ii) समुद्री जल के वाष्पन में अनियमितता;(iii) प्लवक की मात्रा में कमी, जिससे समुद्र में मछलियों की संख्या का घट जाना।अल-नीनो का शाब्दिक अर्थ ‘बालक ईसा’ (Child Christ) है, क्योंकि यह धारा दिसंबर के महीने में क्रिसमस के आस-पास नज़र आती है। पेरू (दक्षिणी गोलार्द्ध) में दिसंबर गर्मी का महीना होता है।भारत में मानसून की लंबी अवधि के पूर्वानुमान के लिए अल-नीनो का उपयोग होता है। सन् 1990-1991 में अल-नीनो का प्रचंड रूप देखने को मिला था। इसके कारण देश के अधिकतर भागों में मानसून के आगमन में 5 से 12 दिनों की देरी हो गई थी।
El Nino prabhav

3. ला-नीनो (La Nina): –

जब पेरू जलधारा का तापमान 2-4ºC कम हो जाए तो उससे भारत की तरफ जाने वाली पवनों की गति बढ़ जाती है, जो अच्छे मानसून का सूचक है।

ग्रीष्म ऋतु में मौसम की क्रियाविधि (Mechanism of Weather in the Summer Season)

–   धरातलीय वायुदाब तथा पवनें (Surface Pressure and Winds): – ग्रीष्म ऋतु का मौसम शुरू होने पर जब सूर्य उत्तरायण की स्थिति में आता है,तब उपमहाद्वीप के निम्न तथा उच्च दोनों ही स्तरों पर वायु परिसंचरण में उत्क्रमण हो जाता है। जुलाई के मध्य तक धरातल के निकट निम्न वायुदाब पेटी जिसे अंत:उष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) कहा जाता है, उत्तर की ओर खिसक कर हिमालय के लगभग समानांतर (20° से 25° उत्तरी अक्षांश) पर स्थित हो जाता है। इस समय तक पश्चिमी जेट प्रवाह भारतीय क्षेत्र से लौट चुका होता है। वास्तव में मौसम वैज्ञानिकों ने पाया है कि भूमध्यरेखीय द्रोणी (ITCZ) के उत्तर की ओर खिसकने तथा पश्चिमी जेट प्रवाह के भारत के उत्तरी मैदान से लौटने के बीच एक अंतर्संबंध है। प्रायः ऐसा माना जाता है कि इन दोनों के बीच कार्य-कारण का संबंध है। ITCZ निम्न वायुदाब का क्षेत्र होने के कारण विभिन्न दिशाओं से पवनों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दक्षिणी गोलार्द्ध से उष्णकटिबंधीय सामुद्रिक वायु संहति (maritime tropical airmass – mT) (एम.टी.) विषुवत् वृत्त को पार करके सामान्यतः दक्षिण-पश्चिमी दिशा में इसी कम दाब वाली पेटी की ओर अग्रसर होती है। यही आर्द्र वायुधारा दक्षिण-पश्चिम मानसून कहलाती है।

–   जेट प्रवाह एवं ऊपरी वायु संचरण (Jet Streams and Upper Air Circulation): – वायुदाब एवं पवनों का उपर्युक्त प्रतिरूप केवल क्षोभमंडल के निम्न स्तर पर ही पाया जाता है। जून में प्रायद्वीप के दक्षिणी भाग पर पूर्वी जेट-प्रवाह 90 कि.मी. प्रति घंटा की गति से चलता है। यह जेट प्रवाह अगस्त में 15° उत्तर अक्षांश पर तथा सितंबर में 22° उत्तर अक्षांश पर स्थित हो जाता है। ऊपरी वायुमंडल में पूर्वी जेट-प्रवाह सामान्यतः 30° उत्तर अक्षांश से परे नहीं जाता।

–   पूर्वी जेट-प्रवाह तथा उष्णकटिबंधीय चक्रवात (Easterly Jet Stream and Tropical Cyclones): – पूर्वी जेट-प्रवाह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को भारत में लाता है। ये चक्रवात भारतीय उपमहाद्वीप में वर्षा के वितरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन चक्रवातों के मार्ग भारत में सर्वाधिक वर्षा वाले भाग हैं। इन चक्रवातों की बारंबारता, दिशा, गहनता एवं प्रवाह एक लंबे दौर में भारत की ग्रीष्मकालीन मानसूनी वर्षा के प्रतिरूप निर्धारण पर पड़ता है।

दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु (वर्षा ऋतु) (Southwest Monsoon Season – Rainy Season)

 –   मई के महीने में उत्तर-पश्चिमी मैदानों में तापमान के तेजी से बढ़ने के कारण निम्न वायुदाब की दशाएँ और अधिक गहराने लगती हैं। जून के आरंभ में ये दशाएँ इतनी शक्तिशाली हो जाती हैं कि वे हिंद महासागर से आने वाली दक्षिणी गोलार्द्ध की व्यापारिक पवनों को आकर्षित कर लेती हैं। ये दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करके बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में प्रवेश कर जाती हैं, जहाँ ये भारत के ऊपर विद्यमान वायु परिसंचरण में मिल जाती हैं। भूमध्यरेखीय गर्म समुद्री धाराओं के ऊपर से गुजरने के कारण ये पवनें अपने साथ पर्याप्त मात्रा में आर्द्रता लाती हैं। भूमध्यरेखा को पार करने के बाद इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इन्हें दक्षिण-पश्चिमी मानसून कहा जाता है।

–   दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में वर्षा अचानक आरंभ हो जाती है। पहली बारिश का असर यह होता है कि तापमान में काफी गिरावट आ जाती है। प्रचंड गर्ज और बिजली की कड़क के साथ इन आर्द्रता भरी पवनों का अचानक चलना प्रायः मानसून का ‘प्रस्फोट’ कहलाता है। जून के पहले सप्ताह में केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र के तटीय भागों में मानसून फट पड़ता है जबकि देश के आंतरिक भागों में यह जुलाई के प्रथम सप्ताह तक हो पाता है। मध्य जून से मध्य जुलाई के बीच दिन के तापमान में 5° से 8° सेल्सियस तक गिरावट आ जाती है।

–   ज्यों ही, ये पवनें स्थल पर पहुँचती हैं उच्चावच और उत्तर-पश्चिमी भारत पर स्थित तापीय निम्न वायुदाब इनकी दक्षिण-पश्चिमी दिशा को संशोधित कर देते हैं भूखंड पर मानसून दो शाखाओं में पहुँचती है।

(i) अरब सागर की शाखा (ii) बंगाल की खाड़ी की शाखा

अरब सागरीय मानसूनी पवनें (Monsoon Winds of the Arabian Sea)

अरब सागर से उत्पन्न होने वाली मानसूनी पवनें तीन शाखाओं में बँट जाती हैं –

(i)  इसकी एक शाखा को पश्चिमी घाट रोक लेता है।

पवनें पश्चिमी घाट की ढलानों पर 900 से 1200 मीटर की ऊँचाई तक चढ़ती हैं। अतः पवनें तत्काल ठंडी होकर सह्याद्रि की पवनाभिमुखी ढाल तथा पश्चिमी तटीय मैदान पर 250 से 400 सेंटीमीटर के बीच भारी वर्षा करती हैं। पश्चिम घाट को पार करने के बाद ये पवनें नीचे उतरती हैं और गर्म होने लगती हैं। इससे इन पवनों की आर्द्रता में कमी आ जाती है। परिणामस्वरूप पश्चिमी घाट के पूर्व में इन पवनों से नाममात्र की वर्षा होती है। कम वर्षा का यह क्षेत्र वृष्टि-छाया क्षेत्र कहलाता है।

(ii) अरब सागर से उठने वाली मानसून की दूसरी शाखा मुंबई के उत्तर में नर्मदा और तापी नदियों की घाटियों से होकर मध्य भारत में दूर तक वर्षा करती है। छोटा नागपुर पठार में इस शाखा से 15 सेंटीमीटर वर्षा होती है। यहाँ यह गंगा के मैदान में प्रवेश कर जाती है और बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है।

(iii) इस मानसून की तीसरी शाखा सौराष्ट्र प्रायद्वीप और कच्छ से टकराती है। वहाँ से यह अरावली के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान को लाँघती है और बहुत ही कम मात्रा में वर्षा करती है। पंजाब और हरियाणा में भी यह बंगाल की खाड़ी से आने वाली मानसून की शाखा से मिल जाती है। ये दोनों शाखाएँ एक-दूसरे के सहारे प्रबलित होकर पश्चिमी हिमालय विशेष रूप से धर्मशाला में वर्षा करती हैं।

बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनें (Monsoon Winds of the Bay of Bengal)

–   बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों की शाखा म्यांमार के तट तथा दक्षिण-पूर्वी बांग्लादेश के एक थोड़े से भाग से टकराती है। किंतु म्यांमार के तट पर स्थित अराकान पहाड़ियाँ इस शाखा के एक बड़े हिस्से को भारतीय उपमहाद्वीप की ओर विक्षेपित कर देती है। इस प्रकार मानसून पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में दक्षिण-पश्चिमी दिशा की अपेक्षा दक्षिणी व दक्षिण-पूर्वी दिशा से प्रवेश करती है। यहाँ से यह शाखा हिमालय पर्वत तथा भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित तापीय निम्नदाब के प्रभावाधीन दो भागों में बँट जाती है, इसकी एक शाखा गंगा के मैदान के साथ-साथ पश्चिम की ओर बढ़ती है और पंजाब के मैदान तक पहुँचती है। इसकी दूसरी शाखा उत्तर व उत्तर-पूर्व में ब्रह्मपुत्र घाटी में बढ़ती है। यह शाखा वहाँ विस्तृत क्षेत्रों में वर्षा करती है। इसकी एक उपशाखा मेघालय में स्थित गारो और खासी की पहाड़ियों से टकराती है। खासी पहाड़ियों के शिखर पर स्थित मॉसिनराम विश्व की सर्वाधिक औसत वार्षिक वर्षा प्राप्त करता है।

–   यहाँ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि तमिलनाडु तट वर्षा ऋतु में शुष्क क्यों रह जाता है? इसके लिए दो कारक उत्तरदायी हैं-

(i) तमिलनाडु तट बंगाल की खाड़ी की मानसून पवनों के समानांतर पड़ता है।

(ii) यह दक्षिण-पश्चिमी मानसून की अरब सागर शाखा के वृष्टि-क्षेत्र में स्थित है।

शीत ऋतु (The Cold Weather Season) 

–   तापमान (Temperature): आम तौर पर उत्तरी भारत में शीत ऋतु नवंबर के मध्य से आरंभ होती है। उत्तरी मैदान में जनवरी और फरवरी सर्वाधिक ठंडे महीने होते हैं। इस समय उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में औसत दैनिक तापमान 21° सेल्सियस से कम रहता है। रात्रि का तापमान काफी कम हो जाता है, जो पंजाब और राजस्थान में हिमांक (0° सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है।

इस ऋतु में, उत्तरी भारत में अधिक ठंड पड़ने के मुख्य रूप से तीन कारण हैं:

(i) पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य समुद्र के समकारी प्रभाव से दूर स्थित होने के कारण महाद्वीपीय जलवायु का अनुभव करते हैं।

(ii) निकटवर्ती हिमालय की श्रेणियों में हिमपात के कारण शीत लहर की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और

(iii) फरवरी के आस-पास कैस्पियन सागर और तुर्कमेनिस्तान की ठंडी पवनें उत्तरी भारत में शीत लहर ला देती हैं। ऐसे अवसरों पर देश के उत्तर-पश्चिम भागों में पाला व कोहरा भी पड़ता है।

मानसून को समझना (Understanding the Monsoon)

मानसून का स्वभाव एवं रचना-तंत्र संसार के विभिन्न भागों में स्थल, महासागरों तथा ऊपरी वायुमंडल से एकत्रित मौसम संबंधी आँकड़ों के आधार पर समझा जाता है। पूर्वी प्रशांत महासागर में स्थित फ्रेंच पोलिनेशिया के ताहिती (लगभग 18° द. तथा 149° प.) तथा हिंद महासागर में ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी भाग में स्थित पोर्ट डार्विन (12°30′ द. तथा 131° पू.) के बीच पाए जाने वाले वायुदाब का अंतर मापकर मानसून की तीव्रता के बारे में पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। भारत का मौसम विभाग 16 कारकों (मापदंडों) के आधार पर मानसून के संभावित व्यवहार के  बारे में पूर्वानुमान लगाता है।

–   प्रायद्वीपीय भारत में कोई निश्चित शीत ऋतु नहीं होती। तटीय भागों में भी समुद्र के समकारी प्रभाव तथा भूमध्यरेखा की निकटता के कारण ऋतु के अनुसार तापमान के वितरण प्रतिरूप में शायद ही कोई बदलाव आता हो। उदाहणत: तिरूवनंतपुरम में जनवरी का अधिकतम माध्य तापमान 31° सेल्सियस तक रहता है, जबकि जून में यह 29.5° सेल्सियस पाया जाता है। पश्चिमी घाट की पहाड़ियों पर तापमान अपेक्षाकृत कम तापमान पाया जाता है।

वायुदाब तथा पवनें (Pressure and Winds): – दिसंबर के अंत तक (22 दिसंबर) सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा पर सीधा चमकता है। इस ऋतु में मौसम की विशेषता उत्तरी मैदान में एक क्षीण उच्च वायुदाब का विकसित होना है। दक्षिणी भारत में वायुदाब उतना अधिक नहीं होता। 1,019 मिलीबार तथा 1,013 मिलीबार की समभार रेखाएँ उत्तर-पश्चिमी भारत तथा सुदूर दक्षिण से होकर गुजरती हैं।

–   परिणामस्वरूप उत्तर-पश्चिमी उच्च वायुदाब क्षेत्र से दक्षिण में हिंद महासागर पर स्थित निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर पवनें चलना आरंभ हो जाती हैं।

–    कम दाब प्रवणता के कारण 3 से 5 कि.मी. प्रति घंटा की दर से मंद गति की पवनें चलने लगती हैं। मोटे तौर पर क्षेत्र की भू-आकृति भी पवनों की दिशा को प्रभावित करती हैं। गंगा घाटी में इनकी दिशा पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी होती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा में इनकी दिशा उत्तर की ओर हो जाती है। भू-आकृति के प्रभाव से मुक्त इन पवनों की दिशा बंगाल की खाड़ी में स्पष्ट तौर पर उत्तर-पूर्वी होती है।

–   सर्दियों में भारत का मौसम सुहावना होता है। फिर भी यह सुहावना मौसम कभी-कभी हल्के चक्रवातीय अवदाबों से बाधित होता रहता है। पश्चिमी विक्षोभ कहे जाने वाले ये चक्रवात पूर्वी भूमध्यसागर पर उत्पन्न होते हैं और पूर्व की ओर चलते हुए पश्चिमी एशिया, ईरान-अफ़गानिस्तान तथा पाकिस्तान को पार करके भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में पहुँचते हैं। मार्ग में उत्तर में कैस्पियन सागर तथा दक्षिण में ईरान की खाड़ी से गुजरते समय इन चक्रवातों की आर्द्रता में संवर्धन हो जाता है, जिससे भारत में वर्षा होती है।

शीतकालीन मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलने के कारण वर्षा नहीं करतीं, क्योंकि एक तो इनमें नमी केवल नाममात्र की होती है, दूसरे, स्थल पर घर्षण के कारण इन पवनों का तापमान बढ़ जाता है, जिससे वर्षा होने की संभावना निरस्त हो जाती है। अतः शीत ऋतु में अधिकांश भारत में वर्षा नहीं होती। अपवादस्वरूप कुछ क्षेत्रों में शीत ऋतु में वर्षा होती है।

(i) उत्तर-पश्चिमी भारत में भूमध्य सागर से आने वाले कुछ क्षीण शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ वर्षा करते हैं। कम मात्रा में होते हुए भी यह शीतकालीन वर्षा भारत में रबी की फसल के लिए उपयोगी होती है। लघु हिमालय में वर्षा हिमपात के रूप में होती है। यह वही हिम है, जो गर्मियों के महीनों में हिमालय से निकलने वाली नदियों में जल के प्रवाह को निरंतर बनाए रखती है। वर्षा की मात्रा मैदानों में पश्चिम से पूर्व की ओर तथा पर्वतों में उत्तर से दक्षिण की ओर घटती जाती है। दिल्ली में सर्दियों की औसत वर्षा 53 मिलीमीटर होती है। पंजाब और बिहार के बीच में यह वर्षा 18 से 25 मिलीमीटर के बीच रहती है।

(ii) कभी-कभी देश के मध्य भागों एवं दक्षिणी प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में भी कुछ शीतकालीन वर्षा हो जाती है।

(iii) जाड़े के महीनों में भारत के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित अरुणाचल प्रदेश तथा असम में भी 25 से 50 मिलीमीटर तक वर्षा हो जाती है।

(iv) उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें अक्टूबर से नवंबर के बीच बंगाल की खाड़ी को पार करते समय नमी ग्रहण कर लेती हैं और तमिलनाडु, दक्षिणी आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्वी कर्नाटक तथा दक्षिण-पूर्वी केरल में झंझावाती वर्षा करती हैं।

शीतऋतु में मौसम की क्रियाविधि (Mechanism of Weather in the Winter Season)

धरातलीय वायुदाब तथा पवनें शीत ऋतु में भारत का मौसम मध्य एवं पश्चिम एशिया में वायुदाब के वितरण से प्रभावित होता है। इस समय हिमालय के उत्तर में तिब्बत पर उच्च वायुदाब केंद्र स्थापित हो जाता है। इस उच्च वायुदाब केंद्र के दक्षिण में भारतीय उपमहाद्वीप की ओर निम्न स्तर पर धरातल के साथ-साथ पवनों का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। मध्य एशिया के उच्च वायुदाब केंद्र से बाहर की ओर चलने वाली धरातलीय पवनें भारत में शुष्क महाद्वीपीय पवनों के रूप में पहुँचती हैं। ये महाद्वीपीय पवनें उत्तर-पश्चिमी भारत में व्यापारिक पवनों के संपर्क में आती हैं। लेकिन इस संपर्क क्षेत्र की स्थिति स्थायी नहीं है। कई बार तो इसकी स्थिति खिसककर पूर्व में मध्य गंगा घाटी के ऊपर पहुँच जाती है। परिणामस्वरूप मध्य गंगा घाटी तक संपूर्ण उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तरी भारत इन शुष्क उत्तर-पश्चिमी पवनों के प्रभाव में आ जाता है।

–   जेट प्रवाह और ऊपरी वायु परिसंचरण (Jet Stream and Upper Air Circulation): – जिन पवनों का ऊपर वर्णन किया गया है, वे धरातल के निकट या वायुमंडल की निचली सतहों में चलती हैं। निचले वायुमंडल के क्षोभमंडल पर धरातल से लगभग तीन किलोमीटर ऊपर बिल्कुल भिन्न प्रकार का वायु संचरण होता है। ऊपरी वायु संचरण के निर्माण में पृथ्वी के धरातल के निकट वायुमंडलीय दाब की भिन्नताओं की कोई भूमिका नहीं होती। 9 से 13 कि.मी. की ऊँचाई पर समस्त मध्य एवं पश्चिमी एशिया पश्चिम से पूर्व बहने वाली पछुआ पवनों के प्रभावाधीन होता है। ये पवनें तिब्बत के पठार के सामानांतर हिमालय के उत्तर में एशिया महाद्वीप पर चलती हैं। इन्हें जेट प्रवाह कहा जाता है। तिब्बत उच्चभूमि इन जेट प्रवाहों के मार्ग में अवरोधक का काम करती है, जिसके परिणामस्वरूप जेट प्रवाह दो भागों में बँट जाता है। इसकी एक शाखा तिब्बत के पठार के उत्तर में बहती है। जेट प्रवाह की दक्षिणी शाखा हिमालय के दक्षिण में पूर्व की ओर बहती है। इस दक्षिणी शाखा की औसत स्थिति फरवरी में लगभग 25° उत्तरी अक्षांश रेखा के ऊपर होती है तथा इसका दाब स्तर 200 से 300 मिलीबार होता है। ऐसा माना जाता है कि जेट प्रवाह की यही दक्षिणी शाखा भारत में जाड़े के मौसम पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती है।

पश्चिमी चक्रवातीय विक्षोभ तथा उष्ण कटिबंधीय चक्रवात (Western Cyclonic Disturbance and Tropical Cyclones)

–    पश्चिमी विक्षोभ, जो भारतीय उपमहाद्वीप में जाड़े के मौसम में पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम से प्रवेश करते हैं, भूमध्य सागर पर उत्पन्न होते हैं। भारत में इनका प्रवेश पश्चिमी जेट प्रवाह द्वारा होता है। शीतकाल में रात्रि के तापमान में वृद्धि इन विक्षोभों के आने का पूर्व संकेत माना जाता है।

–   उष्ण कटिबंधीय चक्रवात बंगाल की खाड़ी तथा हिंद महासागर में उत्पन्न होते हैं। इन उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों से तेज गति की हवाएँ चलती हैं और भारी बारिश होती है। ये चक्रवात तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के तटीय भागों पर टकराते हैं। मूसलाधार वर्षा और पवनों की तीव्र गति के कारण ऐसे अधिकतर चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी होते हैं।

वर्षा का वितरण (Rainfall Distribution)

–   भारत में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 125 सेंटीमीटर है, लेकिन इसमें क्षेत्रीय विभिन्नताएँ पाई जाती हैं

अधिक वर्षा वाले क्षेत्र (Areas of High Rainfall): – अधिक वर्षा पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्व के उप-हिमालयी क्षेत्र तथा मेघालय की पहाड़ियों पर होती है। यहाँ वर्षा लगभग 200 सेंटीमीटर होती है। गारो, खासी और जयंतियाँ पहाड़ियों के कुछ भागों में वर्षा 200 सेंटीमीटर से भी अधिक होती है। ब्रह्मपुत्र घाटी तथा निकटवर्ती पहाड़ियों पर वर्षा 200 सेंटीमीटर से कम होती है।

मध्यम वर्षा के क्षेत्र (Areas of Medium Rainfall): – गुजरात के दक्षिणी भाग, पूर्वी तमिलनाडु, ओडिशा सहित उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, झारखंड, बिहार, पूर्वी मध्य प्रदेश, उपहिमालय के साथ संलग्न गंगा का उत्तरी मैदान, कछार घाटी और मणिपुर में वर्षा 100 से 200 सेंटीमीटर के बीच होती है।

न्यून वर्षा के क्षेत्र (Areas of Low Rainfall): – पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू व कश्मीर, पूर्वी राजस्थान, गुजरात तथा दक्कन के पठार पर वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।

अपर्याप्त वर्षा के क्षेत्र (Areas of Inadequate Rainfall): – प्रायद्वीप के कुछ भागों विशेष रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र के कुछ भाग, लद्दाख और पश्चिमी राजस्थान के अधिकतर भागों में 50 सेंटीमीटर से कम वर्षा होती है।

हिमपात हिमालयी क्षेत्रों तक सीमित रहता है।

भारत के जलवायु प्रदेश / जलवायु के प्रकार का वैज्ञानिक वर्गीकरण

1. थार्नथ्वेट के अनुसार भारत के जलवायु प्रदेश

A अति आर्द्र – उत्तरी-पूर्वी भारत में मिजोरम-त्रिपुरा, मेघालय, निचला असम और अरुणाचल प्रदेश तथा गोवा के दक्षिण में पश्चिमी तट।

B आर्द्र – नागालैण्ड, ऊपरी असम और मणिपुर, उत्तरी-बंगाल और सिक्किम तथा पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र

C2 नम उप- आर्द्र – पश्चिमी-बंगाल, ओडिशा, पूर्वी-बिहार, पंचमढ़ी (मध्य प्रदेश), पश्चिमी घाट के पूर्वी ढाल।

C1 शुष्क उप-आर्द्र – गंगा का मैदान, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ झारखण्ड, उत्तर-पूर्वी आन्ध्रप्रदेश, उत्तरी-पंजाब और हरियाणा, उत्तर पूर्वी तमिलनाडु, उत्तराखण्ड हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर।

D अर्द्ध शुष्क – तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश पूर्वी-कर्नाटक, पूर्वी-महाराष्ट्र, उत्तर-पूर्वी गुजरात, पूर्वी-राजस्थान पंजाब और हरियाणा का अधिकतर भाग।

E शुष्क – पश्चिमी-राजस्थान, पश्चिमी गुजरात और दक्षिणी पंजाब

2. कोपेन का जलवायु वर्गीकरण (Koeppen’s Classification of Climatic Regions of India)-

 –   कोपेन ने अपने जलवायु के वर्गीकरण का आधार तापमान व वर्षा को माना है।

1. कोपेन ने जलवायु प्रदेशों को निर्धारित करने में अंग्रेजी अक्षरों का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित बातों को आधार माना है-

(i) वार्षिक एवं मासिक तापांतर

(ii) वर्षा की मात्रा

(iii) स्थानीय वनस्पति

2. इन्होंने भारत को उष्ण कटिबंधीय व महाद्वीपीय भागों में बाँटने के लिए प्रायद्वीपीय भारत की उत्तरी सीमा को आधार माना है।

3. इन्होंने जलवायु के पाँच प्रकार माने हैं जिनके नाम हैं-

(i) उष्ण कटि. जलवायु

(ii) शुष्क जलवायु-शुष्कता कम होने पर यह अर्द्ध शुष्क मरुस्थल (S) व शुष्कता अधिक हो तो यह मरुस्थल (W) होता है।

(iii) गर्म जलवायु (180C से 30C)

(iv) हिम जलवायु (100C से 30C)

(v) बर्फीली जलवायु (100C से कम गर्म महीने में

जलवायु के प्रकारक्षेत्र
 AMW- लघु शुष्क ऋतु वाला मानसून प्रकारAS – शुष्क ग्रीष्म ऋतु वाला मानसून प्रकारAw – उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार BShw – अर्द्ध शुष्क स्टेपी जलवायु BWhw – गर्म मरुस्थल Cwg – शुष्क शीत ऋतु वाला मानसून प्रकार Dfc – लघु ग्रीष्म तथा ठंडी आर्द्र शीत ऋतु वाला जलवायु प्रदेशE- ध्रुवीय प्रकारगोवा के दक्षिण भारत का पश्चिमी तटतमिलनाडु का कोरोमंडल तटकर्क वृत्त के दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार का अधिकतर भागउत्तर-पश्चिमी गुजरात, पश्चिमी राजस्थान और पंजाब के कुछ भागराजस्थान का सबसे पश्चिमी भाग
 गंगा का मैदान, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर-पूर्वी भारत का अधिकतर प्रदेश।अरुणाचल प्रदेश जम्मू  और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड 

 (i) Amw – मालाबार व कोंकण तट पर विस्तार, ग्रीष्म ऋतु में वर्षा 200 सेमी. से अधिक होती है तथा शीत ऋतु शुष्क होती है। उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन मिलते हैं।

(ii) Aw – उष्ण कटिबंधीय सवाना प्रकार की जलवायु, वर्षा ग्रीष्मकाल में होती है तथा शीत ऋतु शुष्क होती है, गर्मियाँ काफी गर्म, प्रायद्वीपीय भारत के अधिकांश भाग पर विस्तार मिलता है।

(iii) As – Aw की सभी विशेषताएँ मिलती हैं लेकिन अंतर केवल इतना ही है कि यहाँ पर ग्रीष्मकाल की अपेक्षा शीतकाल में वर्षा अधिक होती है। कोरोमंडल तट के सीमित क्षेत्र में पाई जाती है।

(iv) BShw – अर्द्ध मरुस्थलीय शुष्क जलवायु पाई जाती है। वर्षा ग्रीष्मकाल में, शीत ऋतु शुष्क, वार्षिक तापमान का औसत 180C से अधिक रहता है। पूर्वी राजस्थान, कर्नाटक व हरियाणा में विस्तृत।

(v) Bwhw – शुष्क उष्ण मरुस्थलीय जलवायु जो कि पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर व बाड़मेर जिलों में, वर्षा बहुत कम होती है, तापमान सदैव ऊँचा रहता है।

(vi) Dfc – शीतोष्ण कटिबंधीय आर्द्र जलवायु होती है जिसमें वर्षा सभी ऋतुओं में, शीतकाल में तापमान 100C के आसपास, ग्रीष्मकाल छोटा किन्तु वर्षा वाला होता है, इसके अन्तर्गत सिक्किम, अरुणाचल व असम के कुछ भाग आते हैं।

(vii) Cwg – यह समशीतोष्ण आर्द्र जलवायु होती है जिसमें शीतकाल शुष्क व ग्रीष्मकाल वर्षा वाला होता है तथा काफी गर्म रहता है, इसका विस्तार उत्तर प्रदेश के मैदानी व पठारी भाग, पूर्वी राजस्थान, उत्तरी मध्य प्रदेश, बिहार व असम पर मिलता है।

(viii) E – यह ध्रुवीय प्रकार की जलवायु है जहाँ सबसे गर्म माह का तापमान 10°C से कम रहता है। इसका विस्तार जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखण्ड में मिलता है।

3.ट्रिवार्था द्वारा भारत की जलवायु का वर्गीकरण

जे.टी. ट्रिवार्था ने वर्ष 1954 में कोपेन के जलवायु वर्गीकरण को संशोधित किया ।

1.उष्णकटिबंधीय वर्षा जलवायु (Am):-

इस जलवायु में औसत वार्षिक तापमान लगभग 27°C होता है। औसत वार्षिक वर्षा 250 से.मी.  से अधिक होती है। यह जलवायु पश्चिमी घाट तथा त्रिपुरा में पाई जाती है।

2.उष्णकटिबंधीय सवाना जलवायु (Aw):-

इस जलवायु में औसत वार्षिक तापमान लगभग 27°C होता है। औसत वार्षिक वर्षा 100 सेमी. से कम होती है। जलवायु में एक स्पष्ट शुष्क मौसम होता है। प्रायद्वीपीय भारत का अधिकांश भाग, जिसमें तटीय मैदान तथा पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल शामिल हैं, इस जलवायु क्षेत्र के तहत आता है।

3.उष्णकटिबंधीय स्टेपी जलवायु (BSw):-

इस जलवायु क्षेत्र में औसत वार्षिक तापमान लगभग 27°C होता है। यह जलवायु पश्चिमी घाट के पूर्व में प्रायद्वीपीय भारत में पाई जाती है। वास्तव में यह जलवायु पश्चिमी घाट का विशिष्ट छाया क्षेत्र है, जिसमें महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु शामिल हैं।

4.उपोष्ण स्टेपी जलवायु (BSh):-

यह एक अर्द्ध-शुष्क जलवायु है, जिसका विस्तार गुजरात, पूर्वी राजस्थान तथा हरियाणा में है। इस जलवायु क्षेत्र में औसत वार्षिक तापमान लगभग 27°C होता है, यद्यपि जनवरी का औसत तापमान मात्र 15°C होता है। वार्षिक तापान्तर अधिक होता है। औसत वार्षिक वर्षा 60 से 75 से. मी. के बीच होती है।

5. उष्णकटिबंधीय शुष्क जलवायु (BWh):-

   यह जलवायु अरावली के पश्चिम में पाई जाती है तथा इसका विस्तार थार मरुस्थल में है। मई तथा जून महीने में औसत अधिकतम तापमान यदा-कदा 48°C से अधिक हो जाता है। औसत वार्षिक वर्षा 25 सेमी. से कम होती है। देश में सबसे निम्नतम वर्षा इस जलवायु में श्रीगंगानगर जिले में दर्ज की जाती है। इसके फलस्वरूप यहाँ प्राकृतिक वनस्पति काँटेदार झाड़ियों के रूप में पाई जाती है।

6. आर्द्र उपोष्ण जलवायु (Caw):-

   गंगा के मैदान के अधिकांश भागों में यह जलवायु पाई जाती है, जिसका विस्तार पंजाब से असम तक है। जनवरी का औसत तापमान 18°C से कम होता है, जबकि ग्रीष्म ऋतु का औसत अधिकतम तापमान 45°C को पार कर जाता है। औसत वार्षिक वर्षा पूर्व में 250 सेमी. से लेकर पश्चिम में मात्र लगभग 65 सेमी. होती है।

7. आर्द्र पर्वतीय जलवायु (Dwb):-

यह जलवायु जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों तथा उत्तर-पूर्वी भारत के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है। इस जलवायु में ग्रीष्म ऋतु का औसत तापमान लगभग 17°C होता है तथा जनवरी माह का औसत तापमान स्थलाकृति विशेषताओं तथा ढाल से प्रभावित होता है। सामान्यत: वर्षा पूर्व से पश्चिमी की ओर घटती है। पश्चिमी हिमालय शीत ऋतु के दौरान पश्चिमी विक्षोभों से कुछ वर्षा प्राप्त करता है।

भारत की परंपरागत ऋतुएँ Traditional Indian Seasons

ऋतुभारतीय कैलेंडर के अनुसार महीनेग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार महीने
बसंतचैत्र-बैसाखमार्च-अप्रैल
ग्रीष्मज्येष्ठ-आषाढ़मई-जून
वर्षाश्रावण-भाद्रपदजुलाई-अगस्त
शरद्आश्विन-कार्तिकसितंबर- अक्टूबर
हेमंतमार्गशीष-पौषनवंबर-दिसंबर
शिशिरमाघ-फाल्गुनजनवरी-फरवरी

मानसून से संबंधित कुछ परीक्षापयोगी तथ्य

 (1) मानसून में विच्छेद (Break in the Monsoon):

•   जब मानसूनी पवनें दो सप्ताह या इससे अधिक अवधि के लिए वर्षा करने में असफल रहती हैं, तो वर्षा काल में शुष्क दौर आ जाता है, इसे मानसून का विच्छेद कहते हैं।

•   इसका कारण या तो उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में कमी आना या भारत में अंत: उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र(ITCZ) की स्थिति में परिवर्तन आना है।

•   पश्चिमी तटीय भाग में शुष्क दौर तब आता है जब वाष्प से लदी हुई वायु तट के समानान्तर चलती है।

•   पश्चिमी राजस्थान में तापमान की विलोमता जलवाष्प से लदी हुई वायु को ऊपर उठने से रोकती है और वर्षा नहीं होती।

(2) मानसून का प्रत्यावर्तन (Retreating Monsoon):

•   दक्षिण-पश्चिमी मानसून भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग से 1 सितंबर से लौटना शुरू कर देता है और 15 सितंबर तक पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा गुजरात के अधिकांश भागों से लौट जाता है।

•   15 अक्टूबर तक यह दक्षिणी प्रायद्वीप को छोड़कर शेष समस्त भारतीय क्षेत्र से लौट जाता है।

•   लौटती हुई पवनें बंगाल की खाड़ी से जलवाष्प ग्रहण कर लेती हैं और उत्तर-पूर्वी मानसून के रूप में तमिलनाडु पहुँचकर वहाँ पर वर्षा करती हैं।

•   मानसून पवनों का आगमन तथा उनकी वापसी विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न है।

•   देश के उत्तर-पश्चिम भाग में मानसून 1 जुलाई को पहुँचता है और प्रथम सप्ताह सितंबर में वहाँ से लौट जाता है।

•   इस प्रकार वहाँ पर वर्ष में केवल दो माह ही मानसून सक्रिय रहता है।

•   इसके विपरीत कोरोमंडल तट पर मानसून जून माह के शुरू में पहुँच जाता है और मध्य दिसंबर में लौटता है।

•   अतः यहाँ पर मानसून वर्ष में लगभग साढ़े छह माह सक्रिय रहता है।

3. मानसून गर्त (Monsoon Trough): मई माह के अंत में उत्तर भारत में अत्यधिक गर्मी तथा कर्क रेखा पर सूर्य के लम्बवत् होने के कारण बने निम्न वायुदाब के क्षेत्र से वायुमण्डल में बना गर्त अगाध क्षेत्र (मानसून गर्त) कहलाता है।

4. मानसून का फटना (Brust of Monsoon)  : जून माह के प्रारम्भ में जब सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अत्यधिक न्यून वायुदाब का क्षेत्र उपस्थित होता है, तब हिंद महासागर की ओर से दक्षिण-पश्चिमी मानसून द्वारा अचानक केरल तट पर गरज एवं चमक के साथ होने वाली वर्षा को मानसून का फटना कहते हैं।

वर्षा की परिवर्तिता (Variability of Rainfall)-

भारत की वर्षा का एक विशिष्ट लक्षण उसकी परिवर्तिता है। वर्षा की परिवर्तिता को निम्नलिखित सूत्र से अभिकलित किया जाता है:

विचरण गुणांक = (मानक विचलन x 100) / माध्य

माध्य विचरण गुणांक (coefficient of variation) का मान वर्षा के माध्य मान से हुए विचलन को दिखाता है।

–   कुछ स्थानों की वार्षिक वर्षा में 20 से 50 प्रतिशत तक विचलन हो जाता है। विचरण गुणांक के मान भारत में वर्षा की परिवर्तिता को प्रदर्शित करते हैं। 25 प्रतिशत से कम परिवर्तिता पश्चिमी तट, पश्चिमी घाट, उत्तर-पूर्वी प्रायद्वीप, गंगा के पूर्वी मैदान, उत्तर-पूर्वी भारत, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू और कश्मीर के दक्षिण-पश्चिमी भाग में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 100 सेंटीमीटर से अधिक होती है। 50 प्रतिशत से अधिक परिवर्तिता राजस्थान के पश्चिमी भाग, जम्मू और कश्मीर के उत्तरी भागों तथा दक्कन के पठार के आंतरिक भागों में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 50 सेंटीमीटर से कम होती है। भारत के शेष भागों में परिवर्तिता 25 से 50 प्रतिशत तक है। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 50 से 100 सेंटीमीटर के बीच होती है।

मानसून वर्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Monsoonal Rainfall) 9

(i) दक्षिण-पश्चिमी मानसून से प्राप्त होने वाली वर्षा मौसमी है, जो जून से सितंबर के दौरान होती है।

(ii) मानसूनी वर्षा मुख्य रूप से उच्चावच अथवा भू-आकृति द्वारा नियंत्रित होती है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी घाट की पवनाभिमुखी ढाल 250 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा दर्ज करती है। इसी प्रकार उत्तर-पूर्वी राज्यों में होने वाली भारी वर्षा के लिए भी वहाँ की पहाड़ियाँ और पूर्वी हिमालय जिम्मेदार हैं।

(iii) समुद्र से बढ़ती दूरी के साथ मानसून वर्षा में घटने की प्रवृत्ति पाई जाती है। दक्षिण-पश्चिम मानसून अवधि में कोलकाता में 119 सेमी., पटना में 105 सेमी., प्रयागराज में 76 सेमी. तथा दिल्ली में 56 सेमी. वर्षा होती है।

(iv) किसी एक समय में मानसून वर्षा कुछ दिनों के आर्द्र दौरों में आती है। इन गीले दौरों में कुछ सूखे अंतराल भी आते हैं, जिन्हें विभंग या विच्छेद कहा जाता है। वर्षा के इन विच्छेदों का संबंध उन चक्रवातीय अवदाबों से है, जो बंगाल की खाड़ी के शीर्ष पर बनते हैं और मुख्य भूमि में प्रवेश कर जाते हैं। इन अवदाबों की बारंबारता और गहनता के अतिरिक्त इनके द्वारा अपनाए गए मार्ग भी वर्षा के स्थानिक विवरण को निर्धारित करते हैं।

(v) ग्रीष्मकालीन वर्षा मूसलाधार होती है, जिससे बहुत-सा पानी बह जाता है और मिट्टी का अपरदन होता है।

(vi) भारत की कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था में मानसून का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि देश में होने वाली कुल वर्षा का तीन-चौथाई भाग दक्षिण-पश्चिमी मानसून की ऋतु में प्राप्त होता है।

(vii) मानसून वर्षा का स्थानिक वितरण भी असमान है, जो 12 सेमी. से 250 सेमी. अधिक वर्षा के रूप में पाया जाता है।

(viii) कई बार पूरे देश में या इसके एक भाग में वर्षा का आरंभ काफी देर से होता है।

(ix) कई बार वर्षा सामान्य समय से पहले समाप्त हो जाती है। इससे खड़ी फसलों को तो नुकसान पहुँचता ही है शीतकालीन फसलों को बोने में भी कठिनाई आती है।

मानसून का भारत के आर्थिक जीवन पर प्रभाव

(i) मानसून वह धुरी है जिस पर समस्त भारत का जीवन-चक्र घूमता है, क्योंकि भारत की 64 प्रतिशत जनता भरण-पोषण के लिए खेती पर निर्भर करती है, जो मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी मानसून पर आधारित है।

(ii) हिमालयी प्रदेशों के अतिरिक्त शेष भारत में वर्ष भर यथेष्ट गर्मी रहती है, जिससे वर्षभर खेती की जा सकती है।

(iii) मानसून जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता नाना प्रकार की फसलों को उगाने में सहायक है।

(iv) वर्षा की परिवर्तनीयता देश के कुछ भागों में सूखा अथवा बाढ़ का कारण बनती है।   

(v) भारत में कृषि की समृद्धि वर्षा के सही समय पर आने तथा उसके पर्याप्त वितरित होने पर निर्भर करती है। यदि वर्षा नहीं होती तो कृषि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई के साधन विकसित नहीं हैं।

(vi) मानसून का अचानक प्रस्फोट (sudden monsoon burst) देश के व्यापक क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न कर देता है।

(vii) उत्तर भारत में शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों द्वारा होने वाली शीतकालीन वर्षा रबी की फसलों के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होती है।

(viii) भारत की जलवायु की क्षेत्रीय विभिन्नता भोजन, वस्त्र और आवासों की विविधता में उजागर होती है।

–   भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की कुल कार्यशील जनसंख्या में से 60% से अधिक लोग कृषि कार्यों में लगे हैं। भारत की जलवायु कृषि कार्यों के लिए अनुकूल हैं, अत: यहाँ उष्ण, शीतोष्ण तथा उपोष्ण तीनों प्रकार की फसलें उगाई जाती है। भारत अभी विकासशील अवस्था से गुजर रहा है, इसलिए यहाँ के ज्यादातर लोग कृषि पर आश्रित है इसके विपरीत वे देश जो विकसित अवस्था में है उनमें बहुत कम जनसंख्या कृषि कार्यों में लगी हुई है। यह निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा व्यवसाय माना जाता है।

भारत में कृषि को “मानसून का जुआ” कहा जाता है, क्योंकि कृषि मानसून पर निर्भर रहती है तथा मानसून कभी-कभार ही समय पर आता है।

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भारत की जलवायु से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न

यहां आपके लिए भारत की जलवायु से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रश्न का समाकलन भी किया भी किया गया हैं।

भारत की जलवायु कौन कौन सी है?

भारत की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु है. भारत की जलवायु उष्णकटिबंधीय मानसूनी जलवायु है.

5 जलवायु ऋतुएं कौन सी हैं?

दिसंबर से फरवरी तक ठंड का मौसम (सर्दी); – मार्च से मई तक गर्म मौसम का मौसम (ग्रीष्म); – जून से सितंबर तक दक्षिण-पश्चिम मानसून सीज़न (बरसात); – अक्टूबर और नवंबर से मानसून (शरद ऋतु) की वापसी का मौसम।

भारत में कुल कितने जलवायु है?

छह

भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन कौन से हैं?

स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार,समुद्र से दूरी, समुद्री धाराएं, पर्वत मालाओं की स्थिति, भूमि की ढाल, मिट्टी की प्रकृति

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