मरुस्थलीकरण क्या है? अर्थ, कारक, रोकने के उपाय, PDF

नमस्कार आज हम भूगोल विषय के महत्वपूर्ण अध्याय पर्यावरणीय मुद्दे के टॉपिक मरुस्थलीकरण (Desertification) के बारे में अध्ययन करेंगे। इस लेख में हम जानेंगे की मरुस्थलीकरण क्या है? अथवा किसे कहते हैं? मरुस्थलीकरण का अर्थ, मरुस्थलीकरण के कारण, मरुस्थलीकरण रोकने के उपाय इत्यादि के विषय में हम चर्चा करेंगे। चलिए शुरू करते हैं।

मरुस्थलीकरण का अर्थ

मरुस्थलीकरण की परिभाषा के अनुसार यह जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की प्रक्रिया

मरुस्थलीकरण क्या है?

मरुस्थलीकरण मुख्यतः मानव निर्मित गतिविधियों के परिणाम स्वरूप होता है विशेष तौर पर ऐसा अधिक चराई, भूमिगत जल के अत्यधिक इस्तेमाल और मानवीय एवं औद्योगिक कार्यों के लिए नदियों के जल का रास्ता बदलने की वजह से है और यह सारी प्रक्रियाएं मूलतः अधिक आबादी की वजह से संचालित होती हैं। मरुस्थलीकरण का सबसे गहरा प्रभाव है।

मेडागास्कर की केंद्रीय उच्चभूमि के पठार में, स्वदेशी लोगों द्वारा काटने और जलाने की कृषि पद्धति की वजह से पूरे देश का 10% हिस्सा मरुस्थलीकरण में तब्दील हो गया है।

मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण

औद्योगिक कचरा

हाल के वर्षों में राजस्थान के औद्योगिक कचरे से भूमि और जल प्रदूषण की गंभीर समस्या उत्पन्न हो गई है। जोधपुर, पाली और बालोतरा कस्बों में कपड़ा रंगाई और छपाई उद्योगों से निकले कचरे को नदियों में छोड़े जाने से भू-तलीय और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया है।

हवा से मिट्टी का कटाव 

–    हवा से मिट्टी के कटाव का सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है।

–    मरुस्थल के अन्य भागों में किसान यह बात स्वीकार करते हैं कि ट्रैक्टरों के जरिए गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, अधिक समय तक ज़मीन को खाली छोड़ने और अन्य परंपरागत कृषि प्रणालियों से रेत का प्रसार और ज़मीन के मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है।

–    साथ ही जनसंख्या के दबाव और आर्थिक कारणों से पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।

–    एक प्रमुख समस्या जमीन में पानी जमा होने और लवणता और क्षारता बढ़ जाने की है। कछारी मैदानों में खारे भूमिगत जल से सिंचाई की वजह से लवणता और क्षारता की समस्या उत्पन्न हो गई है।

–    कच्छ और सौराष्ट्र के कछारी तटवर्ती इलाकों में बहुत अधिक मात्रा में भूमिगत जल निकालने से कई स्थानों पर समुद्र का खारा पानी जल स्रोतों में भर गया है। थार मरुस्थल में इंदिरा गाँधी नहर के कमान क्षेत्र की ज़मीन में पानी जमा होने और लवणता-क्षारता जैसी समस्याएँ बड़ी तेज़ी से बढ़ रही हैं।

निर्वनीकरण 

वनों का कटाव मरुस्थल के प्रसार का प्रमुख कारण है। गुणात्मक रूप से बढ़ती जनसंख्या के कारण ज़मीन पर बढ़ते दबाव की वज़ह से पेड़-पौधों और वनस्पतियों के ह्रास में वृद्धि हो रही है। जंगल सिकुड़ रहे हैं और मरुस्थलीकरण को बढ़ावा मिल रहा है।

पानी से कटाव

नदियों से होने वाले जमीन के कटाव के कारण सौराष्ट्र और कच्छ के ऊपरी इलाकों के काफी बड़े क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। कटाव के कारण ज़मीन की सतह में कई तरह के बदलाव आते हैं और भू-क्षरण बढ़ता है।

बॉन चुनौती

–     बॉन चुनौती एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हैक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर वर्ष 2020 तक और 350 मिलियन हैक्टेयर भूमि पर वर्ष 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जाएंगी।

–     पेरिस में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, 2015 में भारत ने स्वैच्छिक रूप से बॉन चुनौती पर स्वीकृति दी थी।

–     भारत ने 13 मिलियन हैक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर वर्ष 2020 तक और अतिरिक्त 8 मिलियन हैक्टेयर भूमि पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

मरुस्थलीकरण रोकने के उपाय

रेतीले टीलों का स्थिरीकरण

–    राजस्थान के 58 प्रतिशत क्षेत्र में अलग-अलग तरह के रेतीले टीले पाए जाते हैं।

–    इन्हें पुरानी और नई दो श्रेणियों के अन्तर्गत रखा जाता है। बारचन और श्रब कापिस टीले नए टीलों की श्रेणी में आते हैं और सबसे अधिक समस्या वाले हैं। अन्य रेतीले टीले पुरानी श्रेणी के हैं और फिर से सक्रिय होने के विभिन्न चरणों में हैं।

–    केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान ने अब रेतीले टीलों को स्थिर बनाने के लिए उपयुक्त टेक्नोलॉजी विकसित की है जिसमें ये बातें शामिल हैं-

(1) जैव-हस्तक्षेप से रेतीले टीलों का संरक्षण;

(2) टीलों के आधार से शीर्ष तक समानांतर या शतरंज की बिसात के नमूने पर वायु अवरोधकों का विकास;

(3) वायु-अवरोधकों के बीच घास और बेल आदि के बीजों का रोपण तथा 5×5 मीटर के अंतर से नर्सरी में उगाए पौधों का रोपण।

–    इसके लिए सबसे उपयुक्त पेड़ और घास की प्रजातियों में इस्राइली बबूल (प्रासोफिस जूलीफ्लोरा), फोग (कैलीगोनम पोलीगोनोइड्स), मोपने (कोलोफोस्पर्नम मोपने), गुंडी (कोर्डिया मायक्सा), सेवान (लासिउरस सिंडिकस), घामन (सेंक्रस सेटिजेरस) और तुम्बा (साइट्रलस कोलोसिंथिस) शामिल हैं।

–    रेतीले टीलों वाला 80 प्रतिशत क्षेत्र किसानों के स्वामित्व में है और उस पर बरसात में खेती की जाती है।

–    इस तरह के रेतीले टीलों को स्थिर बनाने की तकनीक एक जैसी है मगर समूचे टीले को पेड़ों से नहीं ढका जाना चाहिए। पेड़ों को पट्टियों की शक्ल में लगाया जाना चाहिए। दो पट्टियों के बीच फसल/घास उगाई जा सकती है।

–    इस विधि को अपनाकर किसान अनाज उगाने के साथ-साथ रेतीले टीलों वाली जमीन को स्थिर बना सकते हैं।

रक्षक पट्टी वृक्षारोपण

–    रेतीली जमीन और हवा की तेज रफ्तार (जो गर्मियों में 70-80 कि.मी. प्रतिघंटा तक पहुँच जाती है) की वजह से खेती वाले समतल इलाकों में काफी मिट्टी का कटाव होता है।

–    कई बार तो मिट्टी का क्षरण 5 टन प्रति हैक्टेयर तक पहुँच जाता है। अगर हवा के बहाव की दिशा में 3 से 5 कतारों में पेड़ लगाकर रक्षक पट्टियाँ बना दी जाएँ तो मिट्टी का कटाव काफी कम किया जा सकता है।

विमानों से बीजों की बुवाई

–    जमीन की रेतीली प्रकृति के कारण उसमें पानी को रोककर रखने की क्षमता बहुत कम होती है। परिणामस्वरूप बीजों की बुवाई दो-तीन दिन में पूरी करना आवश्यक है ताकि उनका अंकुरण हो सके।

–    विशाल दुर्गम इलाकों में नमी की कमी, वर्षा की अनिश्चितता और रेतीली जमीन की अस्थिरता की वजह से वनीकरण की परम्परागत विधियाँ अपर्याप्त हैं।

–    इसलिए विमानों से बीज गिराकर वन लगाने की विधि अपनाई जा सकती है।

–    यह टेक्नोलोजी गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे सूखे की आशंका वाले इलाकों में उपयोग में लाई गई है।

–    विभिन्न पेड़ों और घासों के बीजों को आपस में मिलाकर बरसात से पहले या बरसात के बाद विमानों से गिराकर बो दिया जाता है।

–    मिट्टी और गोबर की खाद के साथ बीजों की गोलियाँ बना ली जाती हैं इस विधि से घास और वृक्षों के बीजों का अंकुरण करीब 70-80 प्रतिशत होता है मगर पशुओं को चराने और नमी की अधिकता के कारण अंकुरित बीजों के मुरझाने की दर काफी अधिक हाती है।

सिल्विपाश्चर प्रणाली

–    ईंधन और चारे की जरूरत पूरी करने के लिए पेड़-पौधों तथा वनस्पतियों की अंधाधुंध कटाई से भी मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है। इस पर नियन्त्रण के लिए सिल्विपाश्चर प्रणाली वाला दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है।

–    इससे धूप और हवा से जमीन के कटाव को कम करने तथा उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलती है।

–    इसके अलावा इससे संसाधनों का संरक्षण करके आर्थिक स्थायित्व भी लाया जा सकता है।

–    अगर अकेसिया टार्टिलिस जैसे पेड़ों से 60 कुंतल प्रति हैक्टेयर ईंधन और सी. सिलिआरिस जैसी घास से 46 कुंतल प्रति हैक्टेयर चारा प्राप्त हो सकता है तो दोनों को एक साथ लगाकर 50 कुंतल प्रति हैक्टेयर ईंधन और 55.8 कुंतल प्रति हैक्टेयर घास प्राप्त की जा सकती है।

 सिंचाई के पानी का सही इस्तेमाल

–    मरुस्थलीकरण को रोकने में सिंचाई की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ लगाने तथा उनके विकास में सिंचाई बड़ी उपयोगी साबित होती है।

–    अत्यधिक रेतीले टीले वाले इलाकों में फसल और पेड़-पौधे तथा वनस्पतियाँ उगाने में सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर प्रणाली का कारगर इस्तेमाल किया जा सकता है।

–    इससे जहाँ पानी की बचत हुई है वहीं राजस्थान के धुर पश्चिमी इलाकों में लेस्यूरस सिंडिकस घास की पैदावार भी काफी बढ़ गई है।

–    मगर पानी के बहुत ज्यादा इस्तेमाल से भूमिगत जल-स्तर में वृद्धि होती है और फसलों का उत्पादन घट जाता है।

खनन गतिविधियों में नियन्त्रण

–    इस समय बंद हो चुकी खानें या तो बंजर पड़ी हैं या उन पर बहुत कम वनस्पतियाँ (5 से 8 प्रतिशत) हैं। इन्हें फिर से हरा-भरा करने की जरूरत है।

–    शुष्क जलवायु में होने वाले पेड़-पौधों और वनस्पतियों की कुछ प्रजातियाँ जैसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, अकेसिया टार्टिलिस, कोलोफास्पर्नम और डिस्क्रोस्टैचिस इन स्थानों में काफी अच्छी तरह उग सकती हैं।

–    इन्हें बंद हो चुकी खानों की बंजर भूमि को हरा-भरा करने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।

विश्व के प्रमुख मरुस्थल

विश्व के प्रमुख मरुस्थल

1.

सहारा

10.

तकला महान

2.

कालाहारी

11.

सोनोरान

3.

नामिब

12.

मोजावे

4.

अटाकामा

13.

ग्रेट सैंडी

5.

पैटागोनिया

14.

गिब्सन

6.

थार

15.

ग्रेट विक्टोरिया

7.

गोबी

16.

तनामी

8.

काराकुम

17.

सिम्पसन

9.

किजिलकुल

18.

अरेबियन

महत्वपूर्ण तथ्य

 मरुस्थलीकरण कई कारकों द्वारा प्रेरित है, मुख्य रूप से मानव द्वारा की जाने वाली वनों की कटाई के कारण, जिसकी शुरुआत होलोसिन (तकरीबन 10,000 साल पहले) युग में हुई थी और जो आज भी तेज रफ्तार से जारी है।

–   रेगिस्तान को आसपास के इलाके के पहाड़ों से घिरे कम शुष्क क्षेत्रों एवं अन्य विषम भू-स्वरूपों, जो शैल प्रदेशों जो मौलिक संरचनात्मक भिन्नताओं को प्रतिबिंबित करते हैं, से अलग किया जा सकता है।

    अन्य क्षेत्रों में रेगिस्तान सूखे से अधिक आर्द्र वातावरण के एक क्रमिक संक्रमण द्वारा रेगिस्तान के किनारे का निर्माण कर रेगिस्तान की सीमा को निर्धारित करना अधिक कठिन बना देते हैं।

–   रेत के टीले मानव बस्तियों पर अतिक्रमण कर सकते हैं। रेत के टीले कई अलग-अलग कारणों के माध्यम से आगे बढ़ते हैं, इन सभी को हवा द्वारा सहायता मिलती है।

    रेत के टीले के पूरी तरह खिसकने का एक तरीका यह हो सकता है कि रेत के कण जमीन पर इस तरह से उछल-कूद कर सकते हैं जैसे- किसी तालाब की सतह पर फेंका गया पत्थर पानी की पूरी सतह पर उछलता है।

    जब ये उछलते हुए कण नीचे आते हैं तो वे अन्य कणों से टकराकर उनको अपने साथ उछलने का कारण बना सकते हैं। कुछ मजबूत हवाओं के साथ ये कण बीच हवा में टकरा कर चादर प्रवाह (शीट फ्लो) का कारण बनते हैं।

–     सूखा भी मरुस्थलीकरण का कारण बनता है, हालांकि ई.ओ विल्सन ने अपनी पुस्तक जीवन का भविष्य, में कहा है कि सूखा के योगदान कारक होने पर भी मूल कारण मानव द्वारा पर्यावरण के अत्यधिक दोहन से जुड़ा है।

–    शुष्क और अर्द्धशुष्क भूमि में सूखा आम हैं और बारिश के वापस आने पर अच्छी तरह से प्रबंधित भूमि का सूखे से पुनरुद्धार हो सकता है। तथापि, सूखे के दौरान भूमि का लगातार दुरुपयोग भूमि क्षरण को बढाता है।

–    2006 में, वुड्स होल अनुसंधान केंद्र ने अमेज़न घाटी में लगातार दूसरे वर्ष सूखे की सूचना देते हुए और 2002 से चल रहे एक प्रयोग का हवाला देते हुए कहा है कि अपने मौजूदा स्वरूप में अमेज़न जंगल संभावित रूप से रेगिस्तान में बदलने के पहले केवल तीन साल तक ही लगातार सूखे का सामना कर सकता है।

–    ब्राजीलियन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अमेंज़ोनियन रिसर्च के वैज्ञानिकों ने तर्क दिया है कि इस सूखे की यह प्रतिक्रिया वर्षावन (रेनफार्रेस्ट) को “महत्त्वपूर्ण बिंदु” की दिशा में धकेल रही है। यह निष्कर्ष निकाला गया है कि पर्यावरण में सीओ2 (CO2) होने के विनाशकारी परिणामों के साथ जंगल वृक्ष रहित बड़े मैदान (सवाना) या रेगिस्तान परिवर्तित होने के कगार पर जा रहा है, वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (World Wide Fund for Nature) के अनुसार, जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई दोनों के संयोजन से मृत पेड़ सूखने लगते हैं और जंगल की आग में ईंधन का काम करते हैं।

–     मरुस्थलीकरण की रोकथाम जटिल और मुश्किल है और तब तक असंभव है जब तक भूमि प्रबंधन की उन प्रथाओं को नहीं बदला जाता जो बंजर होने का कारण बनती हैं।

–     भूमि का अत्यधिक इस्तेमाल और जलवायु में विभिन्नता समान रूप से जिम्मेदार हो सकती है और इनका जिक्र फीडबैक में किया जा सकता है, जो सही शमन रणनीति चुनने में मुश्किल पैदा करते हैं। ऐतिहासिक मरुस्थलीकरण की जांच विशेष भूमिका निभाती हैं

–     जो प्राकृतिक और मानवीय कारकों में अंतर करना आसान कर देता है। इस संदर्भ में, जॉर्डन में मरुस्थलीकरण के बारे में हाल के अनुसंधान में मनुष्य की प्रमुख भूमिका पर सवाल उठती है।

–    मरुस्थलीकरण एक ऐतिहासिक घटना है, दुनिया के विशालतम रेगिस्तान समय के लंबे अंतराल में प्राकृतिक प्रक्रिया के परस्पर प्रभाव से निर्मित हुए हैं। इनमें से अधिकांश रेगिस्तान, इस समय के दौरान मानव गतिविधियों से अलग बढे और संकुचित हुए हैं।

–    पॉलेओडेजर्टस (Paleodeserts) रेत के विशाल समुद्र हैं, जो अब वनस्पति की वजह से निष्क्रिय हो गए हैं, सहारा जैसे कुछ मूल रेगिस्तान वर्तमान हाशिए से आगे बढ़ रहे हैं।

–    पश्चिमी एशिया में कई रेगिस्तान क्रीटेशस युग के उत्तरार्द्ध के दौरान प्रागैतिहासिक जातियों एवं उपजातियों की अधिक आबादी की वजह से बने हैं।

–    सहेल मरुस्थलीकरण का एक और उदाहरण है। सहेल में मरुस्थलीकरण के मुख्य कारण के रूप में काटने और जलाने की खेती को वर्णित किया गया है जिसमें आँधी द्वारा असुरक्षित ऊपरी मिट्टी को हटाने से मिट्टी का अपकर्ष होता है।

–    वर्षा में कटौती भी स्थानीय सदाबहार वृक्षों के विनाश का एक कारण है। सहारा 48 किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से दक्षिण की ओर बढ़ रहा है।

–     मध्य एशियाई देश कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, मंगोलिया ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान भी प्रभावित हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान की भूमि 80% से अधिक ज़मीन भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण का शिकार हो सकती है कज़ाकिस्तान में 1980 के बाद से लगभग आधी से अधिक कृषि योग्य भूमि को त्याग दिया गया है।

–    मरुस्थलीकरण की दर को कम करने के लिए कई प्रकार के तरीकों को आजमाया गया है, तथापि, अधिकांश उपाय रेत की गति का उपचार करते हैं और भूमि के परिवर्तित होने के मूल कारणों जैसे अधिक चराई, अस्थायी कृषि और वनों की कटाई पर काम नहीं करते हैं।

–    मरुस्थलीकरण के खतरे के तहत विकासशील देशों में, बहुत से स्थानीय लोगों का जलाने और खाना पकाने के लिए पेड़ों का उपयोग करना है, जो भूमि क्षरण की समस्या को बढाता है और अक्सर उनकी गरीबी में भी वृद्धि करता है। स्थानीय आबादी ने आगे ईंधन की आपूर्ति हासिल करने के लिए बचे हुए जंगलों पर और अधिक दबाव बना दिया है, जो मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को और बढाता है।

 ‘संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय’(United Nations Convention to Combat Desertification- UNCCD)

–    संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण रोकथाम अभिसमय संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत तीन रियो अभिसमय (Rio Conventions) में से एक है। अन्य दो अभिसमय हैं-

जैव विविधता पर अभिसमय (Convention on Biological Diversity- CBD)।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय(United Nations Framework Convention on Climate Change) (UNFCCC)।

–    UNCCD एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है। मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 17 जून को विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस मनाया जाता है।

Faq

मरुस्थलीकरण का मतलब क्या है?

मरुस्थलीकरण की परिभाषा के अनुसार यह जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की प्रक्रिया

मरुस्थल क्या है समझाइए?

मरुस्थल एक अनुर्वर क्षेत्र का भूदृश्य है जहाँ कम बरसात होती है और इसके परिणाम स्वरूप, रहने की स्थिति पौधे और पशु जीवन के लिए प्रतिकूल होती है।

भारत के मरुस्थल का दूसरा नाम क्या है?

थार का मरुस्थल

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