अधिगम क्या है? अर्थ, परिभाषा, प्रकार और सिद्धांत (Adhigam Kya Hai)

नमस्कार आज हम मनोविज्ञान के महत्वपूर्ण अध्याय में से एक अधिगम (Adhigam) के बारे मे अध्ययन करेंगे । इस अध्ययन के दौरान हम अधिगम से जुड़े विभिन्न बिन्दुओ पर चर्चा करेंगे जैसे अधिगम का अर्थ, अधिगम की परिभाषा, अधिगम के प्रकार और अधिगम के सिद्धांत इत्यादि के विषय मे हम चर्चा करेंगे ।

अधिगम का अर्थ क्या है?

अधिगम का सामान्य अर्थ है- सीखना।

अधिगम की किसे कहते हैं?

सामान्य शब्दों में हम लोग सीखना को अधिगम मान लेते हैं लेकिन वास्तविक शब्दों में केवल सीखना अधिगम नहीं है बल्कि सीखे हुए ज्ञान का हमारे व्यवहार में स्थायी हो जाना अधिगम कहलाता है।

अधिगम क्या है ?

  • अधिगम उस व्यवहार को दिया जाने वाला नाम है जो अभ्यास एवं अनुभवों के कारण हमारे व्यवहार में स्थायित्व ग्रहण कर लेता है।
  • व्यवहार में वांछित परिवर्तन ही अधिगम है।
  • सभी तरह के व्यवहार में हुए परिवर्तन को सीखना नहीं कहा जाता है, व्यवहार में परिवर्तन थकान, दवा खाने से, बीमारी, परिपक्वता आदि से भी होता है। परंतु ऐसे परिवर्तन को सीखना नहीं कहा जाता।
  • परिपक्वता एक सत्य है। परिपक्वता सीखने की गति पर प्रभाव डालती है।

अधिगम के उद्देश्य

सीखने का उद्देश्य :- ज्ञानोपार्जन व कला अर्जन है।

संज्ञान का अर्थ है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना।

  • सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए, ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाए बल्कि उसे समझ सके और आत्मसात कर सके। साथ ही सीखने में विविधता और चुनौतियाँ भी होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रौचक लगे और उन्हें व्यस्त रख सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।
  • जीवन के प्रारंभ में बालक के सीखने की प्रक्रिया का स्वरूप :- अपरिष्कृत, रूक्ष एवं समन्वेषी होता है।  

अधिगम की परिभाषाएँ

(1) सारटेन :- “प्रतिदिन होने वाले नए-नए अनुभवों के कारण व्यवहार में आने वाला स्थायी परिवर्तन ही अधिगम है।”
(2) गेट्स व अन्य :- “अनुभव एवं प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में होने वाला स्थायी परिवर्तन ही अधिगम है।”
(3) क्रो एण्ड क्रो :– “नवीन ज्ञान, आदत एवं अभिवृत्तियों का अर्जन ही अधिगम है।”
(4) स्कीनर :– “सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।”
(5) गिलफोर्ड :- “व्यवहार के कारण व्यवहार में परिवर्तन ही अधिगम है।”
(6) वुडवर्थ :- “नवीन ज्ञान एवं नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अधिगम है।”
(7) गार्डनर मरफी :– “वातावरण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यवहार में होने वाले सभी परिवर्तन अधिगम हैं।”
(8) थॉर्नडाइक :- “उपयुक्त अनुक्रिया के चयन तथा उसे उत्तेजना से जोड़ने को अधिगम कहते हैं।”
(9) वुडवर्थ :– “सीखना विकास की प्रक्रिया है।”
(10) पील महोदय :– “सीखना व्यक्ति में एक परिवर्तन है जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”

अधिगम की विशेषताएँ :-

  • सीखना व्यवहार में परिवर्तन है।
  • जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया (सतत रूप से)
  • सीखना सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
  • अधिगम अनुभवों का संगठन है।
  • अधिगम नवीन ज्ञान एवं प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करना है।
  • अधिगम अनुभव व प्रशिक्षण का परिणाम है।
  • सीखना वातावरण एवं क्रियाशीलता की उपज है।
  • अधिगम अनुकूलन है।
  • अन अधिगम भी अधिगम है।
  • अधिगम विशेष परिस्थिति की उपज है।
  • अधिगम आदतों के निर्माण की प्रक्रिया है।
  • सीखना उद्देश्यपूर्ण एवं लक्ष्य निर्देशित होता है।
  • अधिगम अनुमानित प्रक्रिया है निष्पादन से भिन्न है।
  • अधिगम अनुभव द्वारा अर्थ निर्माण की प्रक्रिया है।
  • अधिगम एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में स्थानान्तरण है।
  • सीखना सर्वांगीण विकास में सहायक है।
  • अधिगम एवं विकास एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं।
  • अधिगम सक्रिय प्रक्रिया है।
  • अधिगम व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों है।
  • सीखना खोज करना है।
  • अधिगम नया कार्य है।
  • अधिगम कार्य व उत्पादन है।
  • अधिगम व्यवहार में स्थायी परिवर्तन है।

Note :- सीखना विकास की प्रक्रिया है। इसे अधिगम की विशेषता नहीं माना जाता है।

अधिगम के अनुक्षेत्र (Domains of Learning) :-

(1) संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र :- अधिगमकर्ता के संज्ञानात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना। विभिन्न मानसिक व बौद्धिक क्रियाएँ जैसे- सोचना, विचारना, कल्पना करना, तर्क करना, अनुमान लगाना, समझ, बोध, स्मरण, सामान्यीकरण करना, निर्णयन, समस्या-समाधान, तर्क आदि का संपादन व अपेक्षित परिवर्तन लाने का श्रेय इसी संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र में आता है।
(2) क्रियात्मक अनुक्षेत्र :- अधिगमकर्ता के क्रियात्मक या मनोशारीरिक व्यवहार में परिवर्तन लाना अर्थात् मांसपेशियों की गति व शक्ति में स्पष्टता लाना। इसके संपादन में विभिन्न गामक क्रियाएँ जैसे- चलना, दौड़ना, पकड़ना, फेंकना, नाचना, गाना, खाना-पीना, स्पर्श करना, लिखना आदि क्षमताओं और कुशलताओं का विकास करना है।
(3) भावात्मक अनुक्षेत्र :– अधिगमकर्ता के भावात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना। व्यवहार से संबंधित विभिन्न क्रियाएँ जैसे- दु:ख, सुख, क्रोधित होना, डरना, रुचि, दृष्टिकोण, पसंद-नापसंद, त्याग, बलिदान, मान्यता, प्रेम, घृणा, ग्लानि, तिरस्कार आदि भावों की अनुभूति, अपने संवेगों को वांछित ढंग से प्रदर्शित करना आदि।

अधिगम के प्रकार/क्रियाएँ

सामान्यतया कोई भी व्यक्ति या बालक किसी विषयवस्तु को सीखता है तो उसमें अलग-अलग प्रकार के व्यवहार प्रकट होते हैं उसके अनुसार सीखना निम्न प्रकार से हो सकता है।

1. विराम या अविराम सीखना :- विराम से अभिप्राय उस सीखने से लगाया जाता है जिसमें बालक किसी पाठ को पढ़ते समय बीच-बीच में रूक जाता है। यह विधि उस समय श्रेष्ठ होती है जब पाठ बड़ा हो तथा सीखने के लिए समय पर्याप्त हो जबकि कभी-कभी एक बालक बिना रूके लगातार सीखता है। यह उस समय संभव होता है जब पाठ छोटा हो और सीखने के लिए समय भी कम हो।
2. पूर्ण व अंश में सीखना :- जब एक बालक किसी पाठ को एक ही बार में पढ़ कर तैयार कर लेता है तो वह पूर्ण पाठ सीखना होता है और यदि बालक उस पाठ को छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटकर एक-एक भाग को सीखते हुए आगे बढ़ता है तो वह अंश में सीखना होता है।
3. सार्थक/साभिप्राय व प्रासंगिक सीखना :- जब एक बालक या व्यक्ति किसी विषयवस्तु को अभिप्राय सहित सीखने का प्रयास करता है अथवा विषयवस्तु को समझते हुए आगे बढ़ता है तो वह सार्थक सीखना होता है और यदि कोई जानकारी किसी प्रसंगवश हो जाती है तो वह प्रासंगिक सीखना होता है। इनमें से सार्थक (साभिप्राय) सीखना ज्यादा श्रेष्ठ माना गया है।

अधिगम की अवस्थाएँ

कोई भी बालक सीखने के दौरान एक समान गति से नहीं सीख पाता है। वह सीखते समय अलग-अलग लक्षण प्रकट करता है तथा उसके सीखने में उतार-चढ़ाव आता रहता है। इसे ही सीखने की अवस्थाएँ कहते हैं। इन लक्षणों के आधार पर सीखने की निम्न अवस्थाएँ प्रकट होती हैं-
1. प्रारम्भिक अवस्था :- जब बालक प्रारम्भिक कालांशों में पढ़ता है तो अत्यधिक ऊर्जावान होने के कारण तीव्र गति से और अधिक मात्रा में सीखता है।
2. मध्यावस्था :- इस अवस्था में सीखने के दौरान बालक में आलस्य, चिड़चिड़ापन, थकान आदि पैदा हो जाते हैं जिससे बालक में सीखने की गति मंद और मात्रा कम हो जाती है।
3. अन्तिम अवस्था :- सीखने के दौरान एक समय ऐसा आता है कि बालक का सीखना चरम सीमा पर पहुँच जाता है और वह सीखना बंद कर देता है।
गेट्स, स्कीनर एवं थॉर्नडाइक के अनुसार- “सीखने के दौरान बालक में विभिन्न प्रकार की अवस्थाओं का निर्माण होता है, लेकिन ये अवस्थाएँ सार्वभौमिक नहीं होती हैं।”

सीखने की प्रभावशाली विधियाँ

1.  करके सीखना (Learning by doing) :- बालक जिस कार्य को स्वयं करते हैं उसे वे जल्दी सीखते हैं।
2. निरीक्षण करके सीखना (Learning by observation) :- बालक जिस वस्तु का निरीक्षण करता है, उसके बारे में वे जल्दी और स्थायी रूप से सीखते हैं। वे अपनी एक से अधिक इन्द्रियों का प्रयोग करते हैं फलस्वरूप उनके स्मृति-पटल पर उस वस्तु का स्पष्ट चित्र अंकित हो जाता है।
3. परीक्षण करके सीखना :- नई बातों की खोज करना, एक प्रकार का सीखना है। बालक इस खोज को परीक्षण द्वारा कर सकता है। परीक्षण के बाद वह किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है।
4. सामूहिक विधियों द्वारा सीखना :- सीखने की सामूहिक विधियाँ व्यक्तिगत की अपेक्षा अधिक उपयोगी व प्रभावशाली मानी जाती हैं। जैसे- वाद-विवाद, सेमीनार, सम्मेलन, विचार गोष्ठी, प्रोजेक्ट, डाल्टन।
5. मिश्रित विधि द्वारा सीखना :- पूर्ण व आंशिक विधि को मिश्रित रूप में रखकर सीखना।
Note :- रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में, सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है।

अधिगम का पठार (Plateaus in Learning)

  • सामान्यत: जब सीखने वाला बालक सीखने के दौरान कोई रूकावट महसूस करता है तो यह अधिगम का पठार बनता है।
  • सीखने की अवस्थाओं के बीच आने वाली रूकावट या बाधा को ही अधिगम का पठार कहते हैं।
  • रॉस :- अधिगम का पठार उस अवधि को व्यक्त करता है जब सीखने की गति एकदम रूक जाती है। इसके अन्तर्गत अधिगम वक्र ना तो ऊपर ना ही नीचे बल्कि समान्तर होता है अर्थात् प्रगति दिखाई नहीं देती है।
  • अधिगम के पठार शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जेरोम ब्रूनर द्वारा किया गया।
adhigam ka pathar

अधिगम पठार बनने का कारण

  • सीखने की इच्छा
  • अभिप्रेरणा का अभाव
  • शिक्षण विधि
  • विषयवस्तु की प्रकृति की जटिलता
  • थकान
  • सीखने का समय
  • रुचि, अवधान की कमी
  • बिन्दु परिवर्तन
  • दोषपूर्ण वातावरण
  • दोषपूर्ण पाठ्यक्रम
  • शारीरिक व मानसिक दोष

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

(अधिगमकर्ता संबंधी कारक (व्यक्तिगत)
1. अभिप्रेरणा :- सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों (Motives) का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह अधिगम को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक है।
 स्टीफन्स :- “शिक्षक के पास जितने भी साधन उपलब्ध हैं, उनमें प्रेरणा सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है।”
अभिप्रेरणा को अधिगम का सर्वोत्तम आधार, सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग (सुनहरी सड़क), अधिगम की शुरुआत माना जाता है।
 स्कीनर :- “अभिप्रेरणा, अधिगम का सर्वश्रेष्ठ राजमार्ग है।”
2. तत्परता एवं इच्छाशक्ति (Readiness and Willpowers):- सीखने वाला किस सीमा तक किस रूप में कोई बात सीखने को इच्छुक या तत्पर है तथा उसमें सीखने के लिए कितनी इच्छाशक्ति है यह सीखने को प्रभावित करता है।
3. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य :- जो छात्र, शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हैं, वे सीखने में रुचि लेते हैं और शीघ्र सीखते हैं। अत: शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सीखने को प्रभावित करता है।
4. आयु  परिपक्वता :- अधिगमकर्ता की आयु एवं परिपक्वता सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। जो छात्र शारीरिक व मानसिक रूप से परिपक्व होते हैं वो जल्दी सीखते हैं एवं सीखने में कठिनाई महसूस नहीं करते हैं बल्कि जो बालक शारीरिक व मानसिक रूप से अपरिपक्व होते हैं वे सीखने में कठिनाई अनुभव करते हैं।
 कॉलसनिक :- “परिपक्वता और सीखना पृथक् प्रक्रियाएँ नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध और एक-दूसरे पर निर्भर हैं।”
5. स्मृति :- स्मृति अधिगम को प्रभावित करती है। तीव्र स्मृति शीघ्र अधिगम में उपयोगी होती है।
6सीखने का समय  थकान :- सीखने का समय सीखने की क्रिया को प्रभावित करता है। जब छात्र विद्यालय जाते हैं तब स्फूर्ति होती है तो वे जल्दी सीखते हैं लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है उनमें थकान आ जाती है जो सीखने को मन्द कर देती है।
7पूर्वज्ञान :- बालक का पूर्वज्ञान वर्तमान सीखने को प्रभावित करता है।
8बुद्धिलब्धि (I.Q.) :- बालक का बुद्धि-लब्धि स्तर अधिगम को प्रभावित करता है। प्रतिभाशाली बालक, पिछड़े बालक व मंदबुद्धि बालक अलग-अलग गति व मात्रा में सीखते हैं।
9. भोजन व औषधियाँ
10. ध्यान/अवधान
11. जीवन उद्देश्य
12. रुचि व महत्त्वाकांक्षा आदि।

(शिक्षक संबंधी कारक :-
1. विषय पर पूर्ण अधिकार
2. विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण
3. शिक्षण कला व कौशल
4. शिक्षक का व्यवहार व व्यक्तित्व
5. अध्यापक का मानसिक स्वास्थ्य एवं समायोजन
6. छात्र-शिक्षक संबंध
7. शिक्षण की विधियाँ
8. अध्यापक की अंत:क्रिया का स्तर

(विषयवस्तु संबंधी कारक :-
1. विषयवस्तु की प्रकृति
2. विषयवस्तु की रोचकता, लम्बाई
3. विषयवस्तु की उपयोगिता, कठिनाई

(घ) वातावरण संबंधी कारक :-
1. परिवार का वातावरण
2. विद्यालय व समाज का वातावरण
3. भौतिक वातावरण (जलवायु)
4. समय-सारणी
5. मित्र-मण्डली
6. खेल-मैदान
7. पुरस्कार व दण्ड का प्रयोग
8. सांस्कृतिक वातावरण
9. उपयुक्त शिक्षण परिस्थितियाँ

सीखने (अधिगम) के नियम

  • प्रतिपादक :- E.L. थॉर्नडाइक
  • थॉर्नडाइक ने अपने प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत के आधार पर सीखने के 3 मुख्य और 5 गौण नियमों का प्रतिपादन किया।

मुख्य नियम
1. तत्परता का नियम (रुचि का नियम)
2. अभ्यास का नियम (उपयोग-अनुपयोग का नियम)
3. प्रभाव/परिणाम का नियम (संतोष-असंतोष का नियम)
गौण नियम :-
1. बहुप्रतिक्रिया का नियम
2. आंशिक क्रिया का नियम
3. मनोवृत्ति/अभिवृत्ति का नियम
4. आत्मीकरण/सादृश्यता का नियम
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम

मुख्य नियम :-
1. तत्परता का नियम (Law of Readiness) :- इसे मानसिक तैयारी/रुचि का नियम भी कहते हैं।
इस नियम के अनुसार कोई प्राणी किसी कार्य को करने के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयार या तत्पर होता है तो उसे शीघ्र ही सीख लेता है। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है। तत्परता व्यक्ति में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करती है और रुचि से कार्य सफल होते हैं। यदि प्राणी कार्य के प्रति तत्पर नहीं होता है तो उस कार्य को नहीं कर सकता है।
वुडवर्थ ने इसे मानसिक तैयारी का नियम कहा है।
 जैसे-
1.  एक घोड़े को तालाब तक ले जाया जा सकता है लेकिन उसे पानी पीने के लिए बाध्य नहीं कर सकते हैं।
2. यदि एक बालक में गणित के प्रश्न हल करने की रुचि या तत्परता होती है तो उन्हें हल कर सकता है अन्यथा नहीं।
2. अभ्यास का नियम (Law of exercise) :- अभ्यास का नियम किसी कार्य को बार-बार दोहराने से दृढ़ होता है अर्थात् अभ्यास ही मनुष्य को दक्ष बनाता है।
अभ्यास करने से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है। ठीक वैसे ही जैसे कुएँ की जगत पर बार-बार रस्सी के आने-जाने से निशान पड़ जाते हैं।
अभ्यास के नियम के 2 उपनियम हैं :-
i. उपयोग का नियम (Law of use) :- इसका तात्पर्य हम सीखे हुए कार्य को बार-बार उपयोग में लेते हैं तो उस कार्य में कुशल हो जाते हैं अर्थात् दोहराव उद्दीपन-अनुक्रिया के संबंध को मज़बूत बनाता है।
ii. अनुपयोग का नियम (Law of Dissuse) :– यदि हम सीखे हुए कार्य का अभ्यास नहीं करते हैं, तो हम उसको भूल जाते हैं। अभ्यास के अभाव में कार्य/विषय का विस्मरण हो जाता है।
 जैसे- हमारी टीम हमेशा विजेता रहती है परन्तु इस बार परीक्षाएँ नज़दीक होने के कारण अभ्यास नहीं कर पाए तो हारना पड़ा।
3. प्रभाव/संतोष/परिणाम का नियम (Law of effect) :- जब भी कोई व्यक्ति किसी कार्य को करता है तो उस व्यक्ति में कार्य के आने वाले परिणाम अपना प्रभाव छोड़ते हैं। यदि उसका परिणाम/प्रभाव हितकर होता है या जिससे हमें सुख और संतोष मिलता है। यदि प्रभाव सकारात्मक होता है तो संतुष्टि अन्यथा असंतोष की प्राप्ति होती है।
 अर्थात् क्रिया या कार्य करने के बाद यदि संतुष्टि प्राप्त होती है तो उसे करना सीख लिया जाता है अन्यथा नहीं।
विद्यालय में पुरस्कार या दण्ड अपनाकर सीखने की क्रिया को प्रभावशाली बनाया जाता है।

गौण नियम – 5
1. बहुप्रतिक्रिया का नियम (Law of multiple Response):- किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए भिन्न-भिन्न (विविध प्रकार के) प्रकार के उपाय करना तथा निश्चित परिणाम के लिए प्रतिक्रियाओं का उपयोग करना अर्थात् हम विविध प्रकार के उपायों और विधियों का प्रयोग करके उस कार्य में सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं।
 जैसे-
 1. बिल्ली को पिंजरे से निकालना
 2. प्रतियोगी अभ्यर्थी सफलता के लिए विभिन्न माध्यमों को अपनाता है।
2. आंशिक क्रिया का नियम (Law of Partial Activity) :- इस नियम के अनुसार हम जिस कार्य को करना चाहते हैं, उसे छोटे-छोटे अंगों या भागों में विभाजित कर लेते हैं। इस प्रकार का विभाजन, कार्य को सरल और सुविधाजनक बना देता है। इस नियम पर शिक्षण का ‘अंश से पूर्ण’ का सिद्धांत आधारित है। शिक्षक अपनी सम्पूर्ण विषयवस्तु को छोटे-छोटे खण्डों में विभाजित करके छात्रों के समक्ष प्रस्तुत करता है।
3. मनोवृत्ति/अभिवृत्ति/मानसिक विन्यास का नियम (Law of Disposition) :- इस नियम से तात्पर्य है कि जिस कार्य के प्रति हमारी जैसी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति होती है, उसी अनुपात में हम उसको सीखते हैं। यदि हमारी मानसिकता सकारात्मक है तो परिणाम सकारात्मक होंगे अन्यथा नकारात्मक।
 जैसे- मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
4. आत्मीकरण/सादृश्यता का नियम (Law of Assimilation) :- इस नियम के अनुसार हम पूर्वज्ञान से संबंध स्थापित करके सीखते हैं। हम जो नया ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे पूर्वज्ञान से जोड़ते हुए आत्मसात् कर लेते हैं।
 जैसे- एक बालिका अपने ननिहाल में किसी को हलवा बनाते हुए देखती है और फिर अपने घर आकर भी हलवा बनाती है अर्थात् पूर्वज्ञान के आधार पर नया ज्ञान सीखना।
5. साहचर्य परिवर्तन का नियम (Law of Associative Shifting) :- इस नियम के अनुसार पहले कभी की गई क्रिया को उसी के समान दूसरी परिस्थिति में उसी प्रकार करना इसमें क्रिया का स्वरूप तो वही रहता है, पर परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।
 जैसे-
 1. बेटे के दूर जाने पर माँ द्वारा उसकी फोटो के साथ बातचीत करना।
 2. प्रेमिका की अनुपस्थिति में प्रेमी उसके चित्र से उसी प्रकार से बातें करता है, जिस प्रकार वह उससे प्रत्यक्ष रूप से करता था।

अधिगम के प्रकार

प्रतिपादक :– रॉबर्ट गैने
पुस्तक :- Condition of Learning (अधिगम की शर्तें) (8)।
अमेरिकी विद्वान रॉबर्ट एम. गैने ने आठ प्रकार के अधिगम बताए हैं, जिन्हें उन्होंने एक सोपानिकी के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे रॉबर्ट गैने की अधिगम सोपानिकी के नाम से जाना जाता है।
 1 से 4 तक निम्न श्रेणी में आते हैं। इनमें तर्क, चिन्तन बोध आदि का अभाव पाया जाता है।

रॉबर्ट गैने की अधिगम सोपानिकी

1. संकेत अधिगम :- यह सबसे निम्न श्रेणी का अधिगम है। इसमें बिना तर्क, चिन्तन के केवल संकेतों के माध्यम से व्यवहार करना होता है। यह सबसे निम्न श्रेणी का अधिगम है। इसमें बिना तर्क, चिन्तन के केवल संकेतों के माध्यम से व्यवहार करना होता है।
यह IP पावलॉव के सिद्धांत पर आधारित है तथा अनुकूलित अनुक्रिया के रूप में होता है।
जैसे-
1. चौराहे पर लाल बत्ती को देखकर वाहनों का रूकना।
2. हरी झण्डी को देखते ही रेलगाड़ी का चलना।
3. अध्यापक को देखकर बच्चों का चुप होना।
2. उद्दीपक अनुक्रिया अधिगम :- जब कोई व्यवहार किसी उद्दीपक की उपस्थिति के कारण होता है तो उस उद्दीपन से होने वाली अनुक्रिया व्यक्ति विशेष से संबंधित होती है और अचानक किसी व्यवहार को जन्म देती है अर्थात् उद्दीपक की उपस्थिति में अनुक्रिया का होना, यह थॉर्नडाइक के नियम पर आधारित है।
 जैसे- विद्यालय की घंटी बजते ही सड़क पर चलने वाले लोगों में से उस विद्यालय में पढ़ने वाले बालक दौड़ते हैं।
3. शृंखला अधिगम :- कुछ व्यवहार ऐसे होते हैं जिन्हें किसी एक निश्चित शृंखला में ही पूरा करना पड़ता है अर्थात् क्रमिक रूप से सीखना, शृंखला अधिगम है।
जैसे- वर्णमाला का एक निश्चित शृंखला क्रम- क, ख, ग …..
शृंखला अधिगम- एडविन गुथरी का सिद्धांत है।
4. शाब्दिक साहचर्य अधिगम :- जब हमारा व्यवहार शब्दों के स्मरण करने, रटने पर निर्भर करता है तो यह शाब्दिक अधिगम कहलाता है।
 जैसे- कविता पाठ, गीतों के माध्यम से सीखना।
5. बहुविभेदन अधिगम :- जब एक व्यक्ति के सामने दो या दो से अधिक उद्दीपक/उपाय हो तो उनमें से किसी एक सही उद्दीपक/उपाय का चयन करके उसके अनुसार क्रिया करना बहुविभेदन अधिगम कहलाता है।
जैसे-
1. रंगों में अंतर
2. एक बहुचयनात्मक प्रश्नावली में से सही विकल्प का चुनाव करना।
6. प्रत्यय/अवधारणा अधिगम :- जब भी कोई व्यवहार किसी विचार के उन्नत होने से होता है अर्थात् किसी वर्ग या गुण के आधार पर वस्तु की व्याख्या करना, प्रत्यय अधिगम कहलाता है।
विभिन्न प्रकार के आविष्कारों का होना इसी पर आधारित होता है।
7. सिद्धांत/नियम अधिगम :- कुछ निश्चित नियमों/सिद्धांतों के आधार पर समस्या की व्याख्या की जाती है।
 जैसे-
 1. न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का नियम
 2. H2 + O = H2O बनता है आदि।
8. समस्या समाधान अधिगम :- यह अधिगम का सर्वोत्तम व उच्च प्रकार है। किसी भी समस्या के समय तर्क, चिन्तन, बोध के द्वारा किसी समाधान को प्राप्त करना।
यह गेस्टॉल्ट सिद्धांत पर आधारित है।
 जैसे- रेखागणित के प्रमेय को हल करना।

अधिगम के सिद्धांत –

A. सीखने के व्यवहारवादी/साहचर्य का सिद्धांत (S – R सिद्धांत)
i. उद्दीपन – अनुक्रिया का सिद्धांत – थॉर्नडाइक
ii. अनुकूलित – अनुक्रिया का सिद्धांत – पावलॉव
iii. पुनर्बलन/प्रबलन का सिद्धांत – C.L. हल
iv. क्रिया-प्रसूत अनुबंधन सिद्धांत – B.F. स्कीनर
v. समीपता/स्थानापन्न का सिद्धांत – एडविन गुथरी
B. अधिगम के ज्ञानात्मक क्षेत्र के सिद्धांत (S – O – R सिद्धांत)
i. अन्त:दृष्टि/सूझ का सिद्धांत (गेस्टॉल्ट) – कोहलर
ii. चिह्न अधिगम सिद्धांत – टॉलमैन
iii. तलरूप अधिगम सिद्धांत – कुर्त लेविन
iv. सामाजिक अधिगम सिद्धांत – अल्बर्ट बाण्डूरा
C. अधिगम के निर्मितवादी/रचनावाद अधिगम सिद्धांत
i. सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का सिद्धांत – लेव वाइगोत्सकी।
ii. संरचनात्मक निर्मितवादी सिद्धांत – ब्रूनर
iii. आधुनिक संज्ञानात्मक सिद्धांत – डेविड आसुबेल
iv.  अनुभवजन्य अधिगम सिद्धांत – कार्ल रोजर्स
v. डेविड कौल्ब का अनुभवात्मक अधिगम मॉडल
D. अधिगम के व्यवहारवादी/साहचर्यवादी सिद्धांत

  • अधिगम उद्दीपन – अनुक्रिया के संबंध के रूप में व्यक्त होता है।
  • वातावरण (पर्यावरणीय) कारकों पर बल।
  • व्यवहार के वस्तुनिष्ठ अध्ययन पर बल।
  • अधिगम की मुख्य विधि अनुबंधन है।
  • अनुभव व प्रशिक्षण पर बल।
  • पुनर्बलन का महत्त्व
  • मानव की तुलना मशीन से (यांत्रिक)
  • व्यवहार को केवल अर्जित मानना।
  • वंशानुगत कारकों की अवहेलना।
  • प्रमुख व्यवहारवादी – वॉटसन, स्कीनर (मौलिक व्यवहारवादी), थॉर्नडाइक, पावलॉव, वुडवर्थ, C.L. हल, एडविन गुथरी, विलियम मैक्डूगल आदि।

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नैनो टेक्नोलॉजी क्या है? What is Nanotechnology in Hindi

निष्कर्ष

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नमस्कार, मैं कुलदीप सिंह पठतु प्लेटफार्म पर शिक्षा जगत से संबंधित लेख लिखने का कार्य करता हूं। मैंने इतिहास विषय से स्नातकोत्तर किया है और वर्तमान में पीएचडी कर रहा हु। यहां इस प्लेटफार्म पर मैं आपको बहुत सी जरूरी जानकारी देने का प्रयास करूंगा जो की शिक्षा जगत से जुड़ी हो।

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