नमस्कार आज हम राजस्थान के कला एवं संस्कृति के महत्वपूर्ण अध्याय यानी राजस्थान का साहित्य (Literature of Rajasthan in Hindi) के बारे में अध्ययन करेंगे। इस अध्ययन के दौरान हम विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे जिसके बारे में आप शायद पहले भी जानते होंगे। वैसे तो राजस्थान का साहित्य (Literature of Rajasthan in Hindi) बहुत विविध है जिसे सदियों से स्थानीय लोगों द्वारा मान्यता प्राप्त गद्य और कविता के रूप में संरक्षित किया गया है।
परीक्षा की दृष्टि से देखे तो यह काफी बड़ा अध्याय है जो परीक्षा मे बहुत अधिक महत्व रखता है इसके बहुत से प्रश्न आपको देख को मिल जाएंगे । इस अध्याय को यदि आप ध्यानपूर्वक अध्ययन करते है तो आपके बहुत से नंबर सैफ हो सकते है क्योंकि Ras भर्ती परीक्षा मे इससे बहुत से प्रश्न Pre और Mains exam दोनों मे पूछे जाते हैं ।
राजस्थान का साहित्य की उत्पत्ति एवं स्थापना | Origin and Foundation Of Rajasthani Literature in Hindi
● राजस्थानी साहित्य से हमारा अभिप्राय मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, बागड़ी, ढूँढाड़ी, मालवी आदि बोलियों में रचे गए साहित्य से है। इन विभिन्न बोलियों का ही सामूहिक नाम राजस्थानी है।
● समयान्तर में इन बोलियों पर राजस्थान के पड़ोसी भू-भागों की भाषाओं विशेषकर गुजराती व ब्रज का प्रभाव भी पड़ा और उन भाषाओं में रचित रचनाओं को राजस्थानी भाषा की संज्ञा दी गई।
● राजस्थानी भाषा का विकास सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर वर्तमान तक हुआ है। इससे पूर्व राजस्थानी भाषा का साहित्य अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं है क्योंकि प्राचीनकाल में साहित्यिक रचना का माध्यम संस्कृत था, जिस पर ब्राह्मण विद्वानों का एकाधिकार था।
● अपभ्रंश का प्रभाव बढ़ने एवं गुजराती भाषा के समृद्ध होने से राजस्थान की क्षेत्रीय बोलियों में बौद्धिक चिन्तनों, आमोद-प्रमोद के उल्लासों, धार्मिक निष्ठाओं, नृत्य, गायन आदि को काव्य के माध्यम से प्रकट किया जाने लगा।
● ’रास’ साहित्य में राजस्थानी भाषा का मौलिक रूप दिखाई देता है। ‘रास’ साहित्य में नृत्य, गायन एवं अभिनय तीनों कलाओं का समावेश मिलता है।
● जैन कवियों की धर्मप्रधान कृतियों ने ‘रास’ साहित्य की समृद्धि में बड़ा योगदान दिया है।
● ‘रिपु-दाररणरस’ जिसकी रचना 905 ई. के लगभग भीनमाल में हुई थी, प्राचीन ‘रास’ साहित्य की समृद्धि में इसका बड़ा योगदान दिया है।
● 1150 ई. के लगभग वज्रसेन सूरि रचित ‘भरतेश्वर बाहुबली’ वीर एवं शांत रस का छोटा-सा काव्य है।
● 1184 ई. में शालिभद्र सूरि द्वारा रचित खण्डकाव्य ‘बाहुबलि’ भी छंदों एवं राग-रागिनियों से युक्त है।
● नरपति नाल्ह की रचना ‘बीसलदेव रासो’ यद्यपि उत्तर मध्यकाल की रचना है, मगर इसका मूलरूप प्राचीन है।
● कालांतर में राजस्थानी साहित्य में अपभ्रंश शब्दों में कमी आती गई और लौकिक शब्दों का प्रयोग बढ़ता गया। तेरहवीं शताब्दी के राजस्थानी साहित्य की कृतियों में जिनवल्लभ सूरि का ‘वृद्ध नवकार’, विनयचन्द्र सूरी की रचना ‘नेमिनाथ’ चतुष्पादिका’, रास’ आदि प्रमुख हैं।
● चौदहवीं शताब्दी के बाद राजस्थानी भाषा के साहित्य में देशी शब्दों के साथ-साथ अरबी-फारसी के शब्द भी प्रयुक्त किए जाने लगे। सोमसुंदर रचित ‘नेमिनाथ-नवरस-फाग’, हीरानन्द सूरि रचित ‘मुनिपति राजर्षि चरित्र’, बीठू सूजा रचित ‘राव छन्द जैतसी रो’, पद्मनाभ रचित ‘कान्हड़दे प्रबंध’ आदि रास, चौपाई तथा वीरोल्लास युक्त काव्य के सुन्दर उदाहरण हैं।
● पृथ्वीराज राठौड़ की रचना ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ पर बृजभाषा का प्रभाव है।
● माणिकचन्द्र सूरि की रचना ‘पृथ्वीचन्द्र चरित्र’, शिवदास गाडण रचित ‘अचलदास खींची री वचनिका’ (1756 ई.) एवं दवावैत साहित्य राजस्थानी भाषा की समृद्धि को प्रकट करते हैं।
● इस समय तक राजस्थानी भाषा समृद्ध हो गई थी।
● राजस्थानी भाषा का यह विपुल साहित्य लिखित और मौखिक तथा गद्य एवं पद्य दोनों ही रूपों में उपलब्ध है।
राजस्थानी साहित्य के विशिष्ट स्वरूप | Distinct Forms of Rajasthani Literature in Hindi
राजस्थान का साहित्य को इसे बेहतर समझ और सुविधा के लिए दिग्गजों द्वारा विभिन्न प्रभागों में वर्गीकृत किया गया है। राजस्थान के साहित्य को पाँच भागों में विभाजित किया गया है, जैसा कि नीचे दी गई तालिका में बताया गया है:
चारण साहित्य
● चारण साहित्य से तात्पर्य चारण शैली के साहित्य से है जिसकी रचना मुख्य रूप से चारणों तथा चरणेत्तर जातियाँ – ब्रह्मभट्ट, भाट, ढाढ़ी, ढोली, राव, सेवक, मोतीसर आदि ने की थी। राजपूतों और ब्राह्मणों ने भी इस शैली की रचनाएँ की हैं।
● यह साहित्य अधिकांशत: पद्य में है और वीर रसात्मक है। इसकी विषय-वस्तु युद्धों और शौर्य के आख्यानों पर आधारित है।
● इसमें शृंगार रस के साथ राजपूतों के त्याग और बलिदान का बड़ा भावात्मक वर्णन किया गया है।
● यह साहित्य प्रबंध काव्य के रूप में, गीतों के रूप में, दोहों, सोरठों, कुण्डलियों, छप्पयों, कवितों, झूलणों आदि के रूप में उपलब्ध है।
● बादर ढाढ़ी की रचना ‘वीर भायण’ चारण शैली की प्रारम्भिक रचना है।
● शिवदास गाडण कृत ‘अचलदास खींची’ की वचनिका तुकांत गद्य और पद्य की रचना है। इस रचना में माण्डू के सुल्तान होशंगशाह और गागरोन के खींची राजा अचलदास के मध्य हुए युद्ध था राजपूत महिलाओं के जौहर का वर्णन है।
● पन्दहवीं शताब्दी के कवि पद्मनाभ की रचना कान्हड़दे प्रबंध में जालोर के चौहान शासक कान्हड़देव एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य युद्धों के सजीव वर्णन के साथ ही राजस्थान की भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन भी मिलता है।
● राजस्थानी रासो साहित्य में सर्वोपरि चन्दबरदायी के ‘पृथ्वीराज-रासो’ में पृथ्वीराज चौहान-तृतीय की वीरता एवं शौर्य के वर्णन के साथ-साथ अनेक कथाओं एवं प्रसंगों को विभिन्न रसों, छंदों, अलंकारों एवं उपमाओं से सजाया गया है। साहित्यिक दृष्टि से यह ग्रंथ वीरगाथा काल की महत्त्वपूर्ण रचना है।
● सोलहवीं शताब्दी के राजस्थानी साहित्य के कवियों में दुरसा आढ़ा का नाम उल्लेखनीय है। वह जोधपुर के शासक चन्द्रसेन और महाराणा प्रताप का समकालीन था।
● मुहणोत नैणसी (1610-1670 ई.) ने ‘नैणसी की ख्यात’ और ’मारवाड़ रा परगना री विगत’ लिखकर सत्रहवीं शताब्दी की राजनीतिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का वर्णन करके मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई है।
● आशिया शाखा का चारण बाँकी (1838-1890 ई.) एक आशुकवि गद्य-पद्य काव्य का लेखक एवं संस्कृत, बृज, राजस्थानी एवं फारसी भाषाओं का ज्ञाता भी था। उसके द्वारा रचे गए दोहों और गीतों में एक विशेष ओज था। ‘बाँकीदास री ख्यात’ राजस्थान के इतिहास का महत्त्वपूर्ण स्रोत ग्रंथ है।
● बूँदी के राजकवि सूर्यमल्ल मीसण (1815-1868 ई.) की रचनाओं में ‘वंश भास्कर’ एवं ‘वीर सतसई’ महत्त्वपूर्ण हैं। मीसण की इन रचनाओं में स्वाभिमान तथा स्वतंत्र प्रेम झलकता है।
● केसरीसिंह बारहठ (1872-1941) ने ‘चेतावणी रा चूँगटिया’ नाम से तेरह सोरठे लिखकर महाराणा फतेहसिंह को 1903 के दिल्ली दरबार में जाने से रोका था।
● चारण कवि सॉयाजी झूला ने ‘नागदमण’ एवं ‘रुक्मणी हरण’ की रचना कर प्रसिद्धि प्राप्त की।
● गद्य साहित्य ख्यात, बात, पीढ़ी, पट्टावली, वंशावली, हकीकत, वृत्तान्त, इतिहास, कथा, कहानी, दवावैत आदि अनेक रूपों में मिलता है। राजस्थानी गद्य साहित्य की समृद्धि का श्रेय चारण लेखकों की है।
● शासकों के निकट रहते हुए चारणों ने उनका सम्पूर्ण विवरण गद्य एवं पद्य में लिखा, जिनमें अतिशयोक्ति होते हुए भी महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तत्त्व मिलते हैं।
जैन साहित्य
● जैन साधुओं तथा जैन धर्म से प्रभावित साहित्यकारों द्वारा जैन शैली से सम्बन्धित साहित्य की रचना की गई है। इस शैली का साहित्य मुख्य रूप से जैन धर्म से सम्बन्धित है, मगर कहीं–कहीं जीवन सम्बन्धी अन्य विषयों पर भी रचनाएँ मिलती है।
● यह साहित्य शांत रस से ओत–प्रोत है और रचना का स्वरूप रास, पुराण, पूजा, पाठ, स्तवन आदि विषय है। गद्य साहित्य में लौकिक कथाएँ, कहानियाँ, आख्यान एवं पद्य में रास, फाग, चौपाई, भास, धवल, प्रबन्ध, ढाल, गीत, छंद, सिलोका, संवाद, दूहा आदि जैन साहित्य के अंग हैं।
● तेरहवीं शताब्दी में व्यास ब्राह्मण नरपति नाल्ह ने बीसलदेव रासो की रचना की।
● यह बीसलदेव चौहान और भोज परमार की पुत्री पर आधारित एक प्रेमाख्यान है। इस रचना काव्य में सौंदर्य, भावाभिव्यक्ति और स्वाभाविकता दृष्टिगोचर होती हैं।
● पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में रास, छंद, फाग आदि की उत्कृष्ट कृतियों की रचना हुई।
● देवपाल का श्रेणिकराजानोरास, ऋषिवर्धन सूरि का नलदमयन्तिरास, धर्म समुद्र गणि का रात्रि भोजनरास, सहजसुंदर का परदेसीराजानोरास आदि उल्लेखनीय है।
● सत्रहवीं शताब्दी में कवि कुशललाभ ने लोककथानकों पर आधारित काव्य माधवानल चौपाई और ढोला मारवण की चौपाई की रचना की।
● हेमरत्नसूरि ने मुख्यत: वीररस और गौणत: शृंगार की रचना ‘गोरा बादल री चौपाई’ में स्वामिधर्म और पद्मिनी के शील की प्रशंसा करते हुए लोक प्रचलित कथा को सीधे-सादे तरीके से व्यक्त किया है। समयसुंदर के अपरिमेय संख्या में रचे गए गीत जैन साहित्य की अमूल्य निधि है।
महत्त्वपूर्ण जैन साहित्य
ग्रंथ | रचयिता |
प्रबंध चिंतामणि | मेरुतुंग |
यमकुमार चौपाई | हेमरत्न सूरी |
हरिमेखला | भाहुक |
समराइच्छकथा, धुर्ताख्यान,विरागंद कथा, यशोधर चरित | हरिभद्र सूरी |
प्रबंधकोष | राजशेखर |
कुवलयमाला | उद्योतन सूरी |
देशीनाममाला, शब्दानुशासन | हेमचन्द्र सूरी |
कुमारपाल चरित, धर्मोदेशमाला, हम्मीर मदमर्दन | जयसिंह सूरी |
उपमिति भव प्रपंचा | सिद्धर्षि |
सच्चरियउ, महावीर उत्साह | धनपाल |
संत साहित्य
● संत साहित्यों ने राजस्थानी साहित्य को समृद्ध बनाया है। यह साहित्य मुख्यत: पद्य में है। संतों ने अपने अनुभवों को वाणी और भजनों द्वारा प्रसारित कर जनमानस को नैतिकता की सीख दी है। इन्होंने आत्मज्ञान, तत्त्वदर्शन, आत्मा की अनुभूति आदि विषयों को लोकभाषा में समझाया है।
● जाम्भोजी और जसनाथजी की वाणियों में वेदान्त के निरूपण और प्रतिपादन की झलक दिखाई देती है। इनकी वाणियाँ हिन्दु–मुस्लिम एकता पर बल देती हैं। इनके वाणी साहित्य ने लोगों को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। दादू की वाणियों की संख्या 3000 है, जिसमें वेदांत और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा के साथ–साथ आत्मानुभूति, सिद्धांत और अनुभव का तारतम्य मिलता है।
● बीकानेर के शासक राव कल्याणमल का द्वितीय पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ एक मुगल मनसबदार होते हुए भी स्वतंत्रता का उपासक और कृष्ण भक्त था। साहित्यकार होने के कारण ही उसे ‘पीथल’ के नाम से प्रतिष्ठा मिली। पृथ्वीराज की रचना ‘वेलि क्रिसन रुकमणी री’ राजस्थानी साहित्य की श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।
● रामस्नेही संत रामचरणजी, हरिरामजी, दरियावजी आदि की वाणियों ने भी जनमानस को पथ दिखाने का कार्य किया
संत | साहित्य |
संत हरिदासजी निरंजनी | मंत्रराजप्रकाश, हरिपुरुष की वाणी |
जसनाथ जी | सिभूधड़ा व कौंडा |
संत लालदासजी | लालदास की चेतावनी |
संत दादूदयालजी | दादूवाणी, काया बेली, दादू रा दूहा |
संत रज्जबजी | सर्वंगी |
सुन्दरदासजी | सुन्दर विलास |
संत चरणदासजी | अखण्ड धामवर्णन, अष्टांग योग |
संत दयाबाई | दयाबोध, विनय मालिका |
सहजोबाई | सहज प्रकाश व सोलह तिथि |
संत मीराबाई | पदावली, रागगोविन्द, सत्यभामा जी नू रूसणो, गीत गोविन्द की टीका, मीरा री गरीबी, रुकमणी मंगल |
संत मावजी | चौपड़ा ग्रंथ |
संत रामचरणजी | अणभैवाणी |
संत हरिरामदासजी | निशानी |
संत कृष्णदास पयहारी | ब्रह्मागीता |
अग्रदास | अष्टयाम |
ब्राह्मणी साहित्य
● ब्राह्मणी साहित्य से हमारा अभिप्राय ब्राह्मणों द्वारा लिखित साहित्य से न होकर ब्राह्मणी शैली से है। इस शैली में विविध विषयों से सम्बन्धित साहित्य की रचना हुई है। बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, सूआ बहोत्तरी, हितोपदेश आदि कथाएँ तथा भागवत पुराण, नासिकेत पुराण, मारकण्डेय पुराण, सूरज पुराण, पद्मपुराण, रामायण, महाभारत आदि के अनुवाद जैसे धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथों की रचना हुई।
लोक साहित्य
● राजस्थानी लोक साहित्य की विविध विधाओं में अनेक विषयों और घटनाओं से सम्बन्धित लोकगीत, जनकाव्य, लोकगाथाएँ, प्रेमाख्यान, लोकनाट्य, पहेलियाँ तथा कहावतें सम्मिलित हैं।
● लोककथाएँ – राजस्थान के जनजीवन में लोककथाएँ मौखिक कहानियों के रूप में प्रचलित हैं।
● लोककथाओं की विषयवस्तु पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, व्रत, त्योहार, नीति व्यवहार, देवी-देवताओं की स्तुति, हास्य, व्यंग्य आदि से संबंधित है।
● लोककथाएँ आदर्श मानव जीवन का चित्रण करती हैं। जीवन में क्या करणीय है और क्या नहीं, इसकी शिक्षा भी प्राप्त कर सकते हैं।
● लोक गाथाएँ – लोक साहित्य में कथात्मक गीतों को लोक गाथाएँ कहा जाता है। इन लोक कथाओं में हमारी ऐतिहासिक, धार्मिक कथाएँ एवं लोकदेवताओं की वीर गाथाएँ सम्मिलित होती हैं।
● पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी, डूँगरजी-जवाहरजी, रामदेवजी आदि की वीर गाथाएँ, जिनमें ये वीर धर्म, जाति, ब्राह्मण, गाय एवं सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देते हैं, जनमानस में रोमांच उत्पन्न करती है।
● ढोला-मरवण, जेठवा-ऊजली, सैणी-बीजानन्द, जलाल-बूबन आदि प्रसिद्ध प्रेमाख्यान हैं।
● लोकनाट्य – राजस्थानी लोकनाट्यों में ख्याल, स्वांग, लीलायें, रम्मत, गवरी तथा हेला प्रमुख हैं, जो पारम्परिक रूप से खुले मंच पर खेले जाते हैं। इनमें लोककथाओं और लोकगाथाओं दोनों का समावेश होता है।
● लोकनाट्यों में इतिहास, पुराण, धर्म, दर्शन, पारम्परिक शौर्य तथा वीर पुरुषों की गाथाओं के साथ ही त्याग-बलिदान और साहस के अनेक प्रसंगों को नाट्य शैली में लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
● फाल्गुन महीने में बीकानेर में रम्मत की परम्परा भी काफी प्राचीन है।
● पहेलियाँ – राजस्थानी लोक साहित्य में पहेलियाँ गद्य और पद्य दोनों में मिलती है। इसके लिए आड़ी, पाली, हीयाली आदि शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं।
● पहेलियाँ इतिहास, पुराण, मनुष्य जीवन, प्रकृति, देवी-देवता, व्यवसाय, जाति, समाज जैसे अनेक विषयों से संबंधित होती है। सभी पहेलियाँ प्रश्न रूपों में होती हैं और इसका अर्थ बताने वाला बुद्धिमान माना जाता है।
● पहेलियाँ प्रत्यक्ष में कुछ कहती हैं और इशारा कहीं ओर होता है।
● कहावतें – कहावतें लोकजीवन को प्रतिबिम्बित करती हैं। धर्म, दर्शन, नीति, पुराण, इतिहास, ज्योतिष, सामाजिक रीति-रिवाज, कृषि, राजनीति आदि सभी अंगों पर कहावतें बनी हुई हैं।
● कहावतें तुकान्त, अतुकान्त, स्वरबद्ध और लयबद्ध भी होती हैं। कहीं-कहीं इनमें कवितांश रूप तो कहीं संवाद शैली भी मिलती है। उदाहरणार्थ– “करम हीण खेती करै, काल पड़े या बैल मरे।“
● इस प्रकार राजस्थानी लोक साहित्य के इतने विविध रूप हैं कि उनकी थाह पाना भी कठिन है।
● दसवीं शताब्दी से वर्तमान समय तक राजस्थानी भाषा और साहित्य का संतोषजनक विकास हुआ।
● मध्यकाल को हम राजस्थानी साहित्य का स्वर्णयुग कह सकते हैं। इस साहित्य के विकास में संत, महाराजा, चारण, भाट, जैन, ब्राह्मण, वैष्णव आदि प्रत्येक वर्ग का योगदान रहा।
कालक्रम अनुसार साहित्य का विभाजन –
● राजस्थानी साहित्य का प्रारंभिक साहित्य हमें अभिलेखीय सामग्री के रूप में मिलता है, जिसमें शिलालेखों, अभिलेखों, सिक्कों तथा मुहरों में जो साहित्य उत्कीर्ण है उस साहित्य को अभिलेखीय साहित्य कहा जा सकता है। यद्यपि यह सामग्री अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध होती है लेकिन जितनी भी सामग्री उपलब्ध होती है उसका साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है।
● राजस्थानी साहित्य में लिखित साहित्य वाणीनिष्ठता की विशेषता को लिए रहा है जिसे लोकसाहित्य कहा गया है। यह साहित्य लोक के अनुभव का अक्षय भंडार रहा, जहाँ विविध विधाओं में साहित्य हमें श्रवण परंपरा से प्राप्त होता रहा।
● राजस्थानी साहित्य की इतिहास परंपरा को हम निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं–
काल परक प्रवृत्ति–परक काल-क्रम
1. प्राचीन काल वीरगाथा काल 1050 से 1450 ई.
2. पूर्व मध्य काल भक्ति काल 1450 से 1650 ई.
3. उत्तर मध्य काल शृंगार रीति एवं 1650 से 1850 ई
नीति परक काल
4. आधुनिक काल विविध विषयों एवं 1850 ई. से अद्यतन
विधाओं से युक्त
1. प्राचीन काल –
● वीरगाथा काल (1050 से 1450 ई.) – भारतवर्ष पर निरंतर होने वाले हमले पश्चिम दिशा में हो रहे थे। इनका अत्यधिक प्रभाव राजस्थान प्रदेश पर पड़ रहा था और यहाँ के शासकों को संघर्ष करना पड़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष की भावना को बनाए रखने के लिए तथा समाज में वीर नायकों के आदर्श को प्रस्तुत करने के लिए वीर रसात्मक काव्यों का सृजन किया गया। इस काल में वीरता प्रधान काव्यों की प्रमुखता के कारण ही इस काल को वीरगाथा काल का नाम दिया गया है।
● इस काल की महत्त्वपूर्ण रचना श्रीधर व्यास की रणमल्ल छंद है। इस काल में जैन रचनाकारों की रचनाएँ भी उल्लेखनीय रही है।
2. पूर्व मध्य काल –
● भक्ति काल (1450 से 1650 ई.) – राजस्थान के इतिहास में संघर्ष का लंबा इतिहास रहा तथा इन युद्धों ने धर्म और संस्कृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। संघर्षों के आधार के रूप में साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ धर्म के प्रचार-प्रसार की प्रवृत्ति भी दिखाई दी। ऐसी परिस्थितियों में संघर्ष से मुक्त होने तथा समस्त प्रकार के विभेदों को मिटाने के लिए जन-सामान्य भक्ति की ओर प्रवृत्त होने लगा तथा ऐसे समय में कई संतों और भक्तों ने जन-सामान्य को सही राह दिखाई तथा अपनी कलम से समाज में सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाते हुए सद् समाज की कल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया। इन संतों तथा भक्तों की रचनाओं की अधिकता के कारण इस काल को भक्ति काल का नाम दिया गया।
● इसी काल में विभिन्न संतों और उनके द्वारा प्रवृत्त संप्रदायों ने लोक में अपनी गहरी पैठ बनाई और लोगों ने उनके मार्ग का अनुसरण किया। ऐसे संप्रदायों में रामस्नेही दादूपंथ, नाथपंथ, अलखिया संप्रदाय, विश्नोई संप्रदाय, जसनाथी संप्रदाय आदि प्रमुख हैं। इस संप्रदायों ने नाम-स्मरण का महत्त्व, निर्गुण उपासना पर बल, गुरु की महत्ता पर बल दते हुए, जाति व्यवस्था में भेदभाव को मिटाते हुए कहा “जात-पाँत पूछै नहीं कोई हरि को भजै सो हरि का होय।“
3. उत्तर मध्य काल –
● शृंगार, रीति एवं नीति परक काल (1650 से 1850 ई.) –
● राजस्थानी साहित्य को उत्तर मध्य काल का साहित्य विविध विषयों से युक्त रहा। इस काल में राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत शांति का काल रहा। शासकों ने अपने राज्य में कलाकारों और साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने साहित्य और कला के विविध आयामों का विकास किया। इस काल में शृंगार रीति (काव्य शास्त्रों) तथा नीति से संबंधित रचनाएँ प्रस्तुत की गई।
● लोक साहित्य द्वारा प्रचलित प्रेमाख्यानों को विभिन्न ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया गया। काव्य शास्त्र से संबंधित रचनाओं ने कवि मंछाराम ने रघुनाथ रूपक प्रस्तुत किया तथा संबोधन परक नीति कारकों में राजिया रा सोरठा, चकरिया रा सोरठा, मेरिया रा सोरठा, मोतिया रा सोरठा आदि रचनाएँ प्रमुख हैं।
4. आधुनिक काल –
● विविध विषयों एवं विधाओं से युक्त (1850 अद्यतन) – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले संग्राम (सन 1857) के पश्चात् समाज में नवीन चेतना का संचार हुआ, जिसका व्यापक असर समाज के सभी वर्गों पर पड़ा और साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा और साहित्य में आधुनिक चेतना का संचार हुआ, जिसे साहित्य में आधुनिक काल का नाम दिया गया।
आधुनिक राजस्थानी साहित्य
● मारवाड़ के कविराजा बांकीदास तथा बूँदी के सूर्यमल्ल मीसण ने राजस्थानी जन मानस में जिस राष्ट्रीय चेतना का बीज बोया था, वही आगे चलकर आधुनिक काल के अनेक कवियों द्वारा प्रकट किया गया। इन्हीं के साथ हींगलाजदान कविया और शंकरदान सामोर का भी नाम लिया जाना जरूरी है।
● कवि ऊमरदान की कविताओं में संवत् 1956 के अकाल से दुखी जनता का मार्मिक चित्रण किया गया है। साथ ही पाखण्डी साधुओं को बेनकाब किया गया है।
● रामनाथ कविया ने ‘द्रौपदी विनय’ से नारी चेतना को जाग्रत किया।
● केसरीसिंह बारहठ, विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री, गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, जनकवि गणेशीलाल व्यास राजस्थान के ऐसे कवि हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लेने के साथ ही इस लड़ाई के लिए कमल को भी हथियार बनाया।
● गणेशीलाल व्यास ऐसे कवि हैं जिन्होंने खुद आजादी की लड़ाई में भाग लिया और आजादी के बाद के अपने मोहभंग को भी कवितओं में प्रमुख रूप से प्रकट किया है।
● रेवतदान चारण की रचनाएँ ‘सामन्ती शोषण’ के प्रति आमजन को जगाने का काम करती हैं।
● 1960 ई. में प्रकाशित सत्यप्रकाश जोशी की काव्य कृति ‘राधा’ आम राजस्थानी कविता युद्ध का गौरव गान करती हैं।
● कन्हैयालाल सेठिया (जिनके गीत ‘धरती धोरां री’ को तो राजस्थान का आदर्श गीत भी कहा जा सकता है) की रचनाएँ तो गहरी नींद में सोई हुई आत्मा को भी जगा दे, ऐसी क्षमता रखती है।
● सातवें दशक के मध्य तक राजस्थान की आधुनिक कविताओं का पहला दौर चला। राजस्थान में राजस्थानी भाषा में मरुवाणी, जाणकारी, ओळमो, लाडेसर, हरावळ, राजस्थली, ईसरलाट, राजस्थानी-एक हेलो, दीठ, चामळ, अपरंच जैसी अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं और इनके माध्यम से बहुत सारे नए कवि सामने आ रहे थे।
● शिवचन्द भरतिया को राजस्थानी का प्रथम आधुनिक गद्यकार कहा जा सकता है।
महत्त्वपूर्ण काव्य रचनाएँ–
कवि काव्य रचना
● कन्हैयालाल सेठिया धरती धोरां री, मींझर, लीलटांस
● पारस अरोड़ा जुड़ाव
● गोरधनसिंह शेखावत गाँव
● तेजसिंह जोधा कठैई की व्हेगौ है
● मणि मधुकर सोजती गेट, पगफेरो
● हरीश भदाणी बोलै सरणाटौ, बातां में भूगोल
● चन्द्र प्रकाश देवल पागी, कावड़, मारग
● अर्जुन देव चारण रिन्दरोही
● मालचन्द तिवाड़ी कीं उतर्यो है आभौ
● लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत मांझळ रात, अमोलक वातां,
मूमळ, गिर ऊँचा ऊँचा गढ़ां, कै रे चकवा बात
● विजयदान देथा बातां री फुलवारी (14 खण्ड), दुविधा,
उलझन, अलेखूँ हिटलर, सपन प्रिया, अंतराल, चौधराइन की चतुराई
● यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र कहानियाँ – जमारो, समन्द अर थार
उपन्यास – हूँ गोरी किण पीव री, जोग-संजोग, चान्दा सेठाणी
● नथमल जोशी कहानी – परण्योड़ी-कँवारी
उपन्यास – आभै पटकी, धोरां रौ धोरी, एक बीनणी दो बीन
साहित्यिक पत्रकारिता
● राजस्थान की साहित्यिक पत्रकारिता का वैभवपूर्ण इतिहास रहा है। इन साहित्यिक, लघु व अनियतकालीन पत्रिकाओं ने राजस्थान के लेखन को ही गति प्रदान करने के साथ ही हिन्दी प्रदेशों के साहित्यकारों को भी एक मंच प्रदान किया।
● बीकानेर की वातायन (हरीश भादाणी), अजमेर की लहर (प्रकाश जैन), भरतपुर की ओर (विजेन्द्र), कांकरोली की सम्बोधन (कमर मेवाड़ी), अलवर की कविता (भागीरथ भार्गव), उदयपुर की बिन्दु ने अनेक लेखकों को गंभीर व स्तरीय मंच प्रदान किया। सम्प्रेषण (चन्द्रभानु भारद्वाज), मधुमाधवी (नलिनी उपाध्याय) के साथ राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘मधुमती’ ने भी राजस्थान में साहित्यिक वातावरण बनाने में योगदान दिया।
● राजस्थानी भाषा की पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ‘जागती जोत’, सत्यप्रकाश जोशी की ‘हरावल’, किशोर कल्पनाकांत की ‘ओल्यूं’, कवि चन्द्रसिंह द्वारा स्थापित ‘मरुवाणी’ प्रमुख हैं।
साहित्यिक पत्रिकाएँ
मधुमति – राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की मासिक पत्रिका। |
जागती जोग – राजस्थानी भाषा, साहित्य व संस्कृति अकादमी, बीकानेर |
रिहाण – राजस्थान सिंधी अकादमी, जयपुर की वार्षिक पत्रिका। |
ब्रजशतदल – राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी, जयपुर की त्रैमासिक पत्रिका। |
प्रमुख साहित्यकार/इतिहासकार
कर्नल जेम्स टॉड
● जन्म – 20 मार्च, 1782
● स्थान – इलिंग्टन प्रान्त (इंग्लैण्ड)
● गुरु – यति ज्ञानचन्द्र (मांडलगढ़, भीलवाड़ा)
● घोड़े का नाम – अल्बुर्ज
उपनाम – ‘घोड़े वाले बाबा’, ‘राजस्थान इतिहास के जनक’
● इन्होंने राजस्थान का इतिहास सर्वप्रथम सम्पूर्ण, व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध तरीके से लिखा।
● 1822 ई. में वापस इंग्लैण्ड जाते समय मानमौरी शिलालेख साथ लेकर गए लेकिन भार अधिक होने के कारण मार्ग में ही समुद्र में फेंक दिया।
● मृत्यु –नवम्बर, 1835
कर्नल जेम्स टॉड के प्रमुख ग्रंथ–
1. एनल्स एण्ड एण्टीक्वीटीज ऑफ राजस्थान (1829 ई.)
● यह ग्रंथ दो जिल्दों में लिखा है।
● इस ग्रंथ के पहले भाग में राजपूताने की भौगोलिक स्थिति, राजपूतों की वंशावली, राजस्थान की सामंत व्यवस्था तथा मेवाड़ का इतिहास लिखा है।
● दूसरे भाग में मारवाड़, आमेर, बीकानेर, जैसलमेर और हाड़ौती आदि राज्यों के इतिहास का वर्णन है।
2. ट्रेवल इन वेस्टर्न इण्डिया
● इसमें टॉड के भ्रमण करते समय व्यक्तिगत अनुभवों के साथ-साथ राजपूती परम्पराओं, अन्धविश्वासों, आदिवासियों के जीवन, मंदिरों मूर्तियों आदि का इतिहास है।
कवि सूर्यमल्ल मीसण
● जन्म – 1815 ई.
● जन्म स्थान – हरणा गाँव, बूँदी
● पिता – चंडीदान
● वह बूँदी के शासक महाराव रामसिंह-द्वितीय के दरबारी कवि थे।
● वह आधुनिक राजस्थानी काव्य या साहित्य के नवजागरण के पुरोधा या जनक कहलाते हैं।
प्रमुख ग्रन्थ–
● वंश भास्कर – चंपू शैली में डिंगल भाषा में लिखित इस ग्रंथ में बूँदी राज्य का इतिहास वर्णित है। इसे मुरारीदान ने पूरा किया।
● वीर सतसई – इस ग्रंथ की रचना 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय की गई।
● सूर्यमल्ल मीसण ने अपने जीवनकाल में केवल चार ग्रंथों की रचना की जिनमें ‘वंश भास्कर’ एक इतिहास ग्रंथ है। ‘रामरंजाट’ लोक संस्कृति का दर्पण है और ‘बलवंत विलास’ इतिहास और ‘वीर सतसई’ स्वाधीनता संग्राम कालीन युग की रचना हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक डिंगल गीत और पत्र साहित्य भी लिखा।
कन्हैयालाल सेठिया
● जन्म – सन् 1919
● स्थान – सुजानगढ़ (चूरू)
● राजस्थानी भाषा के प्रबल समर्थक व विद्वान।
● 2004 में पद्मश्री व 2012 में इन्हें प्रथम ‘राजस्थान रत्न’ सम्मान दिया गया।
प्रमुख ग्रन्थ–
● पीथल-पाथल – कन्हैयालाल सेठिया ने पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) और महाराणा प्रताप (पाथल) के मध्य हुए संवाद पर ‘पीथल-पाथल’ नामक कविता लिखी।
● लीलटांस, धरती-धोरां री, मींझर, मायड़ रो हेलो, वनफूल
प्रमुख पुरस्कार-
● 1941 में इनका पहला काव्य संग्रह ‘वनफूल’ प्रकाशित हुआ।
● देशप्रेम और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत काव्य संग्रह अग्निवीणा (1942) के कारण इन पर राजद्रोह का आरोप लगा।
● वे भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रिय रहे तथा 1945 में बीकानेर प्रजा परिषद् के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में सेलिया ने सामंतवाद का विरोध करते हुए ‘कुण जमीन रो धनी’ कविता के माध्यम से कृषक समुदाय को जाग्रत किया।
● राजस्थान निर्माण के दौरान आबू को राजस्थान में सम्मिलित करवाने के लिए उन्होंने संघर्ष किया।
● सेठिया ने राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की दिशा में भी अथक प्रयास किया।
● लीलटांस के लिए 1976 में इन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा पुरस्कृत किया गया।
● निर्ग्रन्थ के लिए इन्हें 1988 में मूर्तिदेवी पुरस्कार
● सबद के लिए 1987 में सूर्यमल्ल मीसण पुरस्कार
● सतवादी के लिए टांटिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
● 1 नवम्बर, 2008 को कलकत्ता में कन्हैयालाल सेठिया का निधन हो गया।
वियजदान देथा
● जन्म – 1926
● जन्म स्थान – बोरुंदा, जोधपुर
● 1965 ई. में कोमल कोठारी के साथ मिलकर इन्होंने बोरुंदा में रूपायन संस्थान की स्थापना की।
● देथा को 1974 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1992 में भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार व 2007 ई. में पद्मश्री से अलंकृत किया गया।
● 2011 ई. में इन्हें साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया।
● राजस्थान सरकार ने इन्हें प्रथम ‘राजस्थान रत्न’ सम्मान देने की घोषणा 31 मार्च, 2012 को की।
● विजयदान देथा की प्रसिद्ध कृतियाँ ‘बातां री फुलवारी’ (लोक कथा संग्रह) 14 खण्ड, बापू के तीन हत्यारे (आलोचना, 1948), चौधराइन की चतुराई (लघु कहानी संग्रह, 1996), दुविधा और अलेखू हिटलर आदि हैं।
● 1973 में फिल्म निर्माता मणि कौल ने इनकी कहानी ‘दुविधा’ पर दुविधा नाम से और शाहरूख खान ने इसी कहानी पर ‘पहेली’ नाम से फिल्म बनाई। ये फिल्म ऑस्कर के लिए भी नामित हुई थी।
● इनकी मृत्यु 10 नवम्बर, 2013 में हुई थी।
कवि दुरसा आढ़ा
● जन्म– 1535 ई. में धुंधला (जोधपुर) में
● बीकानेर के राजा रायसिंह, सिरोही के राव सुरताण, उदयपुर के राणा अमरसिंह आदि ने उन्हें जागीर में गाँव दिए।
● अकबर ने भी दुरसा का सम्मान करते हुए एक करोड़ ‘पसाव’ प्रदान किया।
● दुरसा आढ़ा ने विरुद्ध छहत्तरी, किरतार बावनी, श्रीकुमार आजाजीनी, भूचर मौरी नी गजगत, राउ श्री सुरताण रा कवित, झूलवा रावत मेघा रा, दूहा सोलंकी वीरमदेव रा, गीत राजि श्री रोहिलास जीरो तथा झूलणा श्री अमरसिंहजी रा आदि रचनाएँ लिखी।
● राणा प्रताप की मृत्यु (1597) ई. के समय दुरसा आढ़ा अकबर के दरबार में थे।
● आबू पर्वत पर अचलेश्वर के मंदिर में इनकी एक सर्वधातु की मूर्ति प्रतिष्ठित है।
● दुरसा आढ़ा एक राष्ट्रीय कवि थे, इनका देहांत 1655 ई. में हुआ माना जाता है।
कवि बांकीदास
● जन्म – 1781 ई. (आसिया शाखा के चारण वंश में)
● बाँकीदास जोधपुर महाराजा मानसिंह के गुरु देवनाम के सम्पर्क में आए जिन्होंने इनका परिचय मानसिंह से कराया।
● मानसिंह ने इनकी विद्वता से प्रभावित होकर प्रथम भेंट में ही इन्हें ‘लाख पसाव’ पुरस्कार से सम्मानित किया।
● बाँकीदास द्वारा लिखे गए आठ काव्य ग्रंथ प्राप्त है। जिनमें सूछत्तिसी, गंगालहरी आदि महत्त्वपूर्ण हैं।
● किन्तु बाँकीदास की महत्त्वपूर्ण कृति ‘खपात’ है।
● 1956 ई. में नरोत्तमदास स्वामी ने बाँकीदास की ख्यात को प्रकाशित किया। इनकी ख्यात में कुल बातों की संख्या 2776 है। इन बातों से राजामान के इतिहास के साथ पड़ोसी राज्यों के इतिहास सम्बन्धी तथा मराठा, सिक्ख, जोगी, मुसलमान, फिरंगी आदि की ऐतिहासिक सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
● सर्वाधिक विवरण मारवाड़ तथा देश के अन्य राठौड़ राज्यों के सम्बन्ध में है।
● मेवाड़ की राजनीतिक रचनाओं का भी ख्यात में वर्णन मिलता है।
प्रमुख रचनाएँ-
1. बाँकीदास री ख्यात
2. दातार बावनी
3. भूरजाल भूषण
4. मानजसोमण्डन
5. नीति मंजरी
6. कुकवि बत्तीसी
● यह राजस्थान के प्रथम कवि थे, जिन्होंने सर्वप्रथम अंग्रेजों के विरुद्ध चेतावनी के गीत लिखे।
● 19 जुलाई, 1833 को जोधपुर में बाँकीदास की मृत्यु हो गई।
कविराज श्यामलदास
● जन्म – 1836 ई. धोंकलिया (भीलवाड़ा)
● मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह व उनके पुत्र महाराणा सज्जनसिंह के दरबारी कवि।
● मेवाड़ महाराणा शम्भूसिंह के आदेश पर इन्होंने मेवाड़ राज्य का इतिहास लिखना शुरू किया, जो ‘वीर विनोद’ नामक ग्रंथ में अंकलित है।
● ब्रिटिश भारत सरकार ने इनको ‘केसर-ए-हिंद’ की उपाधि से तथा महाराणा मेवाड़ ने इनको कविराजा की उपाधि से विभूषित किया।
पृथ्वीराज राठौड़
● यह बीकानेर शासक राव कल्याणमल के पुत्र तथा महाराजा रायसिंह के भाई थे।
● अकबर ने पृथ्वीराज राठौड़ को गागरोन दुर्ग जागीर में दिया था।
● कन्हैयालाल सेठिया ने पृथ्वीराज राठौड़ और महाराणा प्रताप के मध्य हुए संवाद पर ‘पीथल-पाथल’ नामक कविताएँ लिखी, जिसमें ‘पाथल’ महाराणा प्रताप तथा ‘पीथल’ के नाम से पृथ्वीराज राठौड़ को संबोधित किया।
● डॉ. एल. पी. टैस्सीटोरी ने पृथ्वीराज राठौड़ को डिंगल का हैरोस कहा।
प्रमुख ग्रन्थ –
1. वेलि क्रिसन रुकमणि री –
● इस ग्रंथ की रचना गागरोन दुर्ग में की गई ।
● इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण एवं रुकमणी के विवाह का वर्णन मिलता है।
● दुरसा आढ़ा ने इस ग्रंथ को 5वाँ वेद, 19वाँ पुराण तथा 109वाँ उपनिषद् की उपमा दी है।
2. दसम् भागवत रा दूहा
3. गंगा लहरी
4. कल्ला जी रायमलोत री कुंडलियाँ
5. दशरथ रावत
दयालदास
● जन्म 1998 ई. कुड़ीया गाँव (बीकानेर)
● दयालदास ने बीकानेर महाराजा सूरतसिंह, रतनसिंह, सरदार सिंह एवं डूँगरपुर के काल में सम्मानित दरबारी, विश्वसनीय परामर्शक, निपुण राजनीतिज्ञ, गुणी लेखक एवं कवि के रूप में कार्य किया।
● दयालदास री ख्यात की हस्तलिखित प्रति में राठौड़ों की उत्पत्ति से लेकर महाराजा सरदार सिंह के राज्यारोहण (1851ई.) तक का इतिहास लिखा गया है।
● मारवाड़ी गद्य में लिखी गई ख्यात में गीत, कवित, निसाणी, वचनिका, दहा आदि का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया गया है।
● यह ख्यात बीकानेर राजवंश का विस्तृत विवरण जानने, मुगल मराठों के राठौड़ों से सम्बन्ध जानने, फरमान, निशान आदि के राजस्थानी में अनुवाद तथा बीकानेर की प्रशासनिक व्यवस्था को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
● दयालदास ने ख्यात के अतिरिक्त देश-दर्पण, आर्याख्यान, कल्पद्रुम और बीकानेर के पट्टा रे गावाँ री विगत सहित, यशोगान की दृष्टि से पद्य में सुजस बावनी तथा पँवार वंशदर्पण की भी रचनाएँ।
दयालदास का निधन 1891 ई. में हुआ।
गौरीशंकर हीराचन्द ओझा
● जन्म – 1863 ई.
● जन्म स्थान – रोहिड़ा गाँव (सिरोही)
● शिक्षा – मुम्बई या बम्बई में रहकर प्राप्त की।
● उपनाम – ‘राजस्थान के प्रथम पूर्ण इतिहासकार’
‘राजस्थान का ग्रिबन’
– गुरु – कविराज श्यामलदास दधवाड़िया
● गौरीशंकर उदयपुर में महाराणा सज्जनसिंह के दरबार में रहे।
● कर्नल जेम्स टॉड द्वारा अंग्रेजी भाषा में लिखे गए, राजस्थान की रियासतों के इतिहास को ‘राजपूताने का इतिहास’ नामक ग्रंथ में संकलित किया।
– प्रसिद्ध ग्रन्थ – भारतीय प्राचीन लिपिमाला।
● वर्ष 1914 में अंग्रेजों ने इन्हें ‘रायबहादुर’ की उपाधि दी।
● भारतीय लिपि का शास्त्र अंकन कर अपना नाम ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड’ में लिखवाया।
पंडित झाबरमल्ल शर्मा
● जन्म – 1988
● जन्म स्थान – जसरापुर, खेतड़ी (झुंझुनूँ)
● उन्हें पत्रकारिता के भीष्म पितामह कहते हैं।
● कलकत्ता से ‘ज्ञानोदय’ और ‘मारवाड़ी बन्धु’ का सम्पादन किया।
● 1909 ई. में इनके द्वारा ‘भारत’ साप्ताहिक का संपादन किया गया।
लक्ष्मी कुमारी चूंडावत
● जन्म – 24 जून, 1916
● मेवाड़ रियासत के देवगढ़ ठिकाने (वर्तमान राजसमंद जिले में
स्थित)
रचनाएँ
● देवनारायण बगड़ावत की महागाथा, राजस्थान के रीति रिवाज, कै रे चकवा वात, मँझली रात, शांति के लिए संघर्ष, डूँगजी-जवाहरजी, टाबरां री बातां, लेनिन री जीवनी, मूमल, हिंदुकुश के उस पार
पुरस्कार
● सोवियत लैंड–नेहरू पुरस्कार
● पद्मश्री पुरस्कार
● ‘फ्रॉम पर्दा टू द पीपल’ नामक पुस्तक फ्रांसेस टैफ्ट ने लिखी, जिसमें लक्ष्मी कुमारी चूंडावत की जीवनी लिखी।
राजस्थानी साहित्य में प्रथम
भरतेश्वर बाहुबलिघोरराजस्थानी की प्राचीनतम रचना | लेखक – वज्रसेन सूरिभाषा – मारू गुर्जरविवरण – भरत और बाहुबलि के बीच हुए युद्ध का वर्णन |
भरत बाहूबलि राससंवतोल्लेख वाली प्रथम रचना | रचना– 1184 ई.लेखक – शालिभद्र सूरि |
अचलदास खींची री वचनिकावचनिका शैली की प्रथम रचना | लेखक – शिवदास गाडण |
कनक सुन्दरराजस्थानी भाषा का सबसे पहलाउपन्यास | लेखक– शिवचन्द भरतिया (1903) |
केसर विलासराजस्थानी की प्रथम नाटक | लेखक – शिवचन्द भरतिया (1900) |
विश्रांत प्रवासराजस्थानी में प्रथम कहानी | लेखक – शिवचन्द भरतिया(1904) |
आभैपटकीस्वातन्त्र्योतर काल का प्रथमराजस्थानी उपन्यास | लेखक – श्रीलाल नथमल जोशी (1956) |
बादलीआधुनिक राजस्थानी की प्रथमकाव्याकृति | लेखक – चन्द्र सिंह बिरकाली |
राजस्थानी साहित्य की शब्दावली
1. ख्यात
● ख्यात संस्कृत भाषा का शब्द है। शब्दार्थ की दृष्टि से इसका आशय ख्यातियुक्त प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है अर्थात् ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध एवं लोक विश्रुत पुरुषों की जीवन घटनाओं का संग्रह ख्यात कहलाता है।
● ख्यात में विशिष्ट वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्यों और उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
● ख्यातों का नामकरण वंश, राज्य या लेखक के नाम से किया जाता था, जैसे राठौड़ा री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, नैणसी की ख्यात।
● इतिहास के विषयानुसार और शैली की दृष्टि से ख्यातों को दो भागों में बाँटा जा सकता है–
1. संलग्न ख्यात – ऐसी ख्याति में क्रमानुसार इतिहास लिखा हुआ होता है, जैसे – दयालदास की ख्यात।
2. बातसंग्रह – ऐसी ख्यातों में अलग-अलग छोटी या बड़ी बातों द्वारा इतिहास के तथ्य लिखे हुए मिलते हैं, जैसे – नैणसी एवं बांकीदास की ख्यात।
● ख्यातों का लेखन मुगल बादशाह अकबर (1556-1605 ई.) के शासन काल से प्रारंभ माना जाता है।
2. प्रशस्ति
● राजस्थान में मंदिरों, दुर्गद्वारों, कीर्तिस्तम्भों आदि पर प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण मिलती है। इनमें राजाओं की उपलब्धियों का प्रशंसायुक्त वृत्तान्त मिलता है इसलिए इन्हें ‘प्रशस्ति’ कहते हैं। मेवाड़ में प्रशस्तियाँ उत्कीर्ण करने की परम्परा रही है प्रशस्तियों में राजाओं का वंशक्रम, युद्ध अभियानों, पड़ोसी राज्यों से संबंध, उनके द्वारा निर्मित मंदिर, जलाशय, बाग-बगीचों, राजप्रासादों आदि का वर्णन मिलता है। इनमें उस समय के बौद्धिक स्तर का भी पता चलता है।
● प्रशस्तियों में यद्यपि अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, राज प्रशस्ति, रायसिंह प्रशस्ति आदि मुख्य प्रशस्तियाँ है जो तत्कालीन समय की राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का ज्ञान कराती है।
3. रासो
● मध्यकालीन राजपूत शासकों ने विद्वानों और कवियों को राज्याश्रय प्रदान किया। उन विद्वानों ने शासकों की प्रशंसा में काव्यों की रचना, जिनमें इतिहास विषयक सामग्री मिलती है। ऐसे काव्यों को ‘रासो’ कहा जाता है।
● मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, ‘जिस काव्य ग्रंथ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं’ हिन्दी साहित्य कोष के अनुसार रासो नाम से अभिहित और दूसरी दो प्रकार की हैं– पहली गीत-नृत्य परक जो राजस्थान तथा गुजरात में रची गई और दूसरी छन्द, वैविध्य परक जो पूर्वी राजस्थान में लिखी गई।
● रासो ग्रंथों में चन्दबरदाई का पृथ्वीराजरासो, नरपति नाल्ह का बीसलदेव रासो, कवि जान का क्यामखां रासो, दौलत विजय का खुमाण रासो, गिरधर आसिया का सगतरासो, राव महेशदास का बिन्है जाचिक जीवन का प्रतापरासो, सीताराम रतनू का जवान रासो प्रमुख हैं।
4. वंशावली/पीढ़ियाँवली
● वंशावली में विभिन्न वंशों की सूचियाँ मिलती है। इन सूचियों में वंश के आदिपुरुष से विद्यमानपुरुष तक पीढ़ीवार वर्णन मिलता है।
● वंशावलियाँ और पीढियाँवलियाँ अधिकतर ‘भाटों’ द्वारा लिखी गई है। प्रत्येक राजवंश तथा सामन्त परिवार भाटों का यजमान होता था।
● राजवंश की वंशावली तैयार करना, शासकों तथा उनके परिवार के सदस्यों के कार्यकलापों का विस्तृत विवरण रखना उनका मुख्य कार्य होता था।
● वंशावलियाँ और पीढ़ियाँवलियाँ, शासकों, सामन्तों, महारानियों, राजकुमारों, मंत्रियों फलत: इतिहास के व्यक्तिक्रम, घटनाक्रम और संदर्भक्रम की दृष्टि से वंशावलियाँ उपयोगी हैं।
● अमरकाव्य वंशावली, सूर्यवंश वंशावली, राणाजी री वंशावली, सिसोदिया वंशावली आदि महत्त्वपूर्ण वंशावलियाँ हैं।
5. वचनिका
● वचनिका शब्द ‘संस्कृत’ के वचन से बना है। राजस्थानी साहित्य में गद्य-पद्य मिश्रित काव्य को वचनिका की संज्ञा दी गई है। वचनिका के दो भेद होते हैं–
1. पद्यबद्ध व 2. गद्यबद्ध
● पद्यबद्ध में आठ-आठ अथवा बीस-बीस मात्राओं के तुकयुक्त पद होते हैं, जबकि गद्यबद्ध में मात्राओं का नियम लागू नहीं होता है।
● अचलदास खींची री वचनिका, राठौड़ रूपसिंहजी री वचनिका, राठौड़ रतनसिंहजी महेदशदास री वचनिका आदि प्रमुख वचनिकाएँ हैं।
6. विगत
● विगत में विषय का विस्तृत विवरण होता है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, शासकीय परिवार, राज्य के प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक, व्यक्तित्व का वर्णन मिलता है।
● आर्थिक दृष्टि से विगत में उपलब्ध, आँकड़े तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को जानने के लिए उपयोगी स्रोत है।
● नैणसी की मारवाड़ रा परगना री विगत में प्रत्येक परगने की आबादी, रेख, भूमि, किस्म, फसलों का हाल, सिंचाई के साधन आदि की जानकारियाँ मिलती हैं।
7. मरस्या
● मरस्या से तात्पर्य ‘शोक काव्य’ से है। राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्यूपरांत शोक व्यक्त करने के लिए ‘मरस्या’ काव्यों की रचना की जाती थी। इसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का जिक्र भी किया जाता था।
● यह कृतियाँ समसामयिक होने के कारण उपयोगी है। ‘राणे जगपत रा मरस्या’ मेवाड़ महाराणा जगतसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए लिखा गया था।
8. प्रकास
● किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियों को प्रकास कहा गया है। प्रकास ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।
● किशोरदास का राजप्रकास, आशिया मानसिंह का महायश प्रकास, कविया करणीदान का सूरज प्रकास, रामदान लालस का भीमप्रकास, मोडा आशिया का पाबुप्रकास, किशन सिढ़ायच की उदयप्रकास, बख्तावर का केहर प्रकास, कमजी दधवाड़िया का दीपक कुल प्रकास आदि महत्त्वपूर्ण प्रकास ग्रंथ हैं।
9. बही
● एक विशेष प्रकार की बनावट के रजिस्टर को बही कहते हैं, जिसमें इतिहास सम्बन्धी कई उपयोगी सामग्री दर्ज की हुई मिलती हैं।
● राव व बड़वे अपनी बहियों में आश्रयदाताओं के नाम और उनकी मुख्य उपलब्धियों का ब्यौरा लिखते थे। इसी प्रकार राणी मंगा जाति के लोग कुँवरानियों व ठकुरानियों के नाम और उनकी संतति का विवरण अपनी बहियों में लिखते थे। यह कार्य पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता था।
● चित्तौड़-उदयपुर पाटनामा री बही, पाबूदान री बही, जोधपुर राणी मंगा री बही आदि प्रमुख बहियाँ हैं।
10. बात
● ऐतिहासिक घटनाओं, इतिहास प्रसिद्ध पात्रों और पौराणिक आख्यानों को लेकर अनेक छोटी-छोटी बातें लिखी गई हैं। प्रारम्भ में बातें मौखिक ही रही लेकिन बाद में बातें तत्कालीन समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों की जानकारी देने में सहायक रही हैं। बातें काल्पनिक भी होती थी। कथानक, विषय, रचना-प्रकार, शैली और उद्देश्य की दृष्टि से बातें अनेक प्रकार की मिलती हैं।
● तत्कालीन समय में बातों के माध्यम से ही समाज को आवश्यक ज्ञान दिया जाता था। बातों में बाल-विवाह, बहुविवाह, पर्दा, दहेज एवं सती प्रथा का भी चित्रण मिलता है।
● राणा प्रताप री बात, राव मालदेव री बात, अचलदास खींची री बात, राजा उदयसिंह री बात, वीरमदे सोनगरा री बात, राव चन्द्रसेन री बात आदि प्रमुख बातें हैं।
11. परची
● संत-महात्माओं का जीवन परिचय जिस पद्यबद्ध रचना में मिलता है उसे राजस्थानी भाषा में परची कहा गया है। इनमें संतों के नाम, जाति, जन्म स्थान, माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों का नाम एवं उनकी साधनागत उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
● संत साहित्य के इतिहास अध्ययन के लिए ये कृतियाँ उपयोगी हैं। संत नामदेव की परची, कबीर की परची, संत रैदास की परची, संत पीपा की परची, संत दादू की परची, मीराबाई की परची आदि प्रमुख परची रचनाएँ हैं।
12. झूलणा
● झूलणा राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें 24 अक्षर के वर्णिक छन्द के अंत में यगण होता है।
● अमरसिंह राठौड़ रा झूलणा, राजा गजसिंह-रा-झूलणा, राव सुरतांण-देवड़े-रा-झूलणा आदि प्रमुख झूलणे हैं।
13. झमाल
● झमाल राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है।
● इसमें पहले पूरा दोहा, फिर पाँचवें चरण में दोहे के अंतिम चरण की पुनरावृत्ति की जाती है। छठे चरण में दस मात्राएँ होती हैं।
● इस प्रकार दोहे के बाद चान्द्रायण फिर उल्लाला छन्द रखकर सिंहावलोकन रीति से पढ़ा जाता है। राव इन्द्रसिंह री झमाल प्रसिद्ध है।
14. दूहा
● राजस्थान में वीर तथा दानी पुरुषों के जीवन व कार्यों से संबंधित दोहे लिखे गए हैं। जिनसे उनके साहस, धैर्य, त्याग, कर्तव्यपरायणता, दानशीलता तथा ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी मिलती है।
● ऐतिहासिक दृष्टि से अखैराज सोनिगरै रा दूहा, अमरसिंह, गजसिंह रा दूहा, करण सगतसिंह रा दूहा, कान्हड़दे सोनगरा रा दूहा आदि प्रमुख हैं।
15. दवावैत
● गद्य-पद्य में लिखी गई तुकान्त रचनाएँ ‘दवावैत’ कहलाती है। गद्य के छोटे-छोटे वाक्य खण्डों के साथ पद्य में किसी एक घटना अथवा किसी पात्र का जीवन वृत्त दवावैत में मिलता है।
● अखमाल देवड़ा री दवावैत, महाराणा जवानसिंह री दवावैत, राजा जयसिंह री दवावैत आदि प्रमुख दवावैत ग्रंथ हैं।
16. धमाल
● राजस्थान में होली के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को धमाल कहा जाता है।
● होली के अवसर पर गाई जाने वाली एक राग का नाम भी धमाल है।
17. टब्बा और बालावबोध
● मूल रचना के स्पष्टीकरण हेतु पत्र के किनारों पर टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं उन्हें टब्बा कहते हैं और विस्तृत स्पष्टीकरण को बालावबोध कहा जाता है।
18. बारहमासा
● बारहमासा में कवि वर्ष के प्रत्येक मास की परिस्थितियों का चित्रण करते हुए नायिका का विरह वर्णन करते हैं।
● बारहमासा का वर्णन प्राय: आषाढ़ से प्रारम्भ होता है।
19. सबद
● सन्त काव्य में ‘सबद’ से तात्पर्य गेय पदों से है। सबद में प्रथम पंक्ति टेक अथवा स्थायी होती है, जिसको गाने में बार-बार दोहराया जाता है।
● सबद का शुद्ध रूप शब्द होता है। सभी सन्त कवियों ने शब्दों की रचनाएँ की हैं, जिन्हें विभिन्न लौकिक और शास्त्रीय रागों में गाया जाता है।
20. सिलोका
● संस्कृत के श्लोक शब्द का बिगड़ा रूप सिलोका है। राजस्थानी भाषा में धार्मिक, ऐतिहासिक और उपदेशात्मक सिलोके लिखे मिलते हैं। कुछ सिलोके प्रख्यात वीरों एवं कुछ ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर लिखे गए हैं। सिलोका साधारण पढ़े-लिखे लोगों द्वारा लिखे गए हैं इसलिए ये जनसाधारण की भावनाओं का दिग्दर्शन कराते हैं।
● राव अमरसिंह रा सिलोका, अजमालजी रो सिलोको, राठौड़ कुसलसिंह रो सिलोको, भाटी केहरसिंह रो सिलोको आदि प्रमुख सिलोके हैं।
21. साखी
● साखी का मूल रूप साक्षी है। साक्षी का अर्थ आँखों देखी बात का वर्णन करना अर्थात् गवाही देना होता है।
● साखी परक रचनाओं में संत कवियों ने अपने अनुभूत ज्ञान का वर्णन किया है। साखियों में सोरठा छन्द का प्रयोग हुआ है। चौपाई, चौपई, छप्पय आदि का प्रयोग कम हुआ है।
22. वेलि
● वेलि का अर्थ वेल, लता व वल्लरी है। वल्लरी संस्कृत शब्द है, जिसका अपभ्रंश रूप वेल अथवा वेलि है।
● ऐतिहासिक वेलि ग्रंथ वेलियों छन्द में लिखे हुए मिलते हैं। इन वेलि ग्रंथों से राजनीतिक घटनाओं के साथ-साथ सामाजिक एवं धार्मिक मान्यताओं की जानकारी भी मिलती है। दईदास जैतावत री वेलि, रतनसी खीवावत री वेलि तथा राव रतन री वेलि प्रमुख वेलि ग्रंथ हैं।
23. विलास
● विलास काव्यकृतियों में राजनीतिक घटनाओं के अलावा आमोद-प्रमोद विषयक पहलुओं का भी वर्णन मिलता है।
● राज विलास, बुद्धि विलास, वृत्त विलास, विजय विलास, भीम विलास आदि महत्त्वपूर्ण विलास ग्रंथ हैं।
प्रमुख कला संस्थाएँ एवं संग्रहालय
केन्द्रीय संग्रहालय या अल्बर्ट हॉल म्यूजियम
● स्थित – जयपुर
● इस म्यूजियम की नींव महाराजा रामसिंह द्वितीय के शासन काल में वर्ष 1876 में प्रिंस अल्बर्ट के द्वारा रखी गई थी तथा 1887 में इसका उद्धाटन सर एडवर्ड बेडफार्ड के द्वारा किया गया था।
● यह म्यूजियम राजस्थान का प्रथम संग्रहालय (म्यूजियम) है। अल्बर्ट हॉल म्यूजियम में मिश्र की प्राचीनकालीन ममी रखी गई है।
● अल्बर्ट हॉल म्यूजियम राजस्थान का सबसे बड़ा संग्रहालय है।
राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग
● स्थापना – वर्ष 1950
● स्थित – जयपुर
● प्रकाशित पत्रिका – द रिसर्चर
राजस्थान राज्य अभिलेखागार
● स्थापना – वर्ष 1955
● स्थित – बीकानेर
● सन् 1960 में इसे जयपुर से बीकानेर स्थानान्तरित किया गया था।
● राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना का मुख्य उद्देश्य इतिहास में लिखित सामग्री को सुरक्षित रखना था।
● इस विभाग में मुख्यालय के अलावा 6 अन्य शाखाएँ भी बनाई गई हैं जयपुर, अलवर, अजमेर, उदयपुर, कोटा, भरतपुर।
प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान
● स्थापना – वर्ष 1955
● स्थित – जोधपुर
● राजस्थान सरकार के द्वारा 1950 में संस्कृत मंडल की स्थापना की गई थी।
● संस्कृत मंडल का पुनर्गठन कर 1955 में प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के रूप में बदल दिया गया था।
अरबी फारसी शोध संस्थान
● स्थापना – वर्ष 1978
● स्थित – टोंक
● कसरे इल्म के नाम से स्थापित की गई थी।
● अरबी फारसी शोध संस्थान में औरंगजेब द्वारा लिखित पुस्तक ‘आलमगिरी कुरान’ तथा शाहजहाँ द्वारा लिखवाई गई पुस्तक ‘कुराने कमाल’ रखी गई है।
● 1981 में इसका वर्तमान नाम “मौलाना अबुल कलाम आजाद अरबी फारसी शोध संस्थान”, टोंक रखा।
सर छोटूराम स्मारक संग्रहालय
● इसकी स्थापना स्वामी केशवानंद के द्वारा हनुमानगढ़ जिले के संगरिया नामक स्थान पर की गई थी।
● इसमें विशाल कमंडल तथा महाराजा रणजीत सिंह के दरबार की कैमरा फोटो और चैंबर ऑफ प्रिंसेस की 14 फरवरी, 1921 की कैमरा फोटो दर्शनीय है।
बागोर की हवेली संग्रहालय
● स्थित – पिछोला झील, उदयपुर
● स्थापना – 1997
● इसमें राजस्थान में पहने जाने वाले साफे और भाँति-भाँति की करीब 500 पगड़ियाँ रखी गई हैं। इसी परिसर में पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र का कार्यालय संचालित है।
जनजाति संग्रहालय
● स्थापना – 30 दिसंबर, 1983
● स्थित – उदयपुर
● इसकी स्थापना माणिक्यलाल वर्मा जनजाति शोध संस्थान के द्वारा की गई थी।
● जनजाति संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर मेवाड़ का राज चिह्न ‘जो दृढ़ राखे धर्म को ताहि राखे करतार’ रखा गया है।
भादरिया लाइब्रेरी पोकरण
● स्थित – भादरिया राय माता मंदिर पोकरण, जैसलमेर
● स्थापना – यह एशिया का सबसे बड़ा गैर सरकारी पुस्तकालय है। इस पुस्तकालय की स्थापना 1983 में संत हरवंश सिंह निर्मल के द्वारा की गई थी जो कि पंजाब के फिरोजपुर के निवासी हैं। यह पुस्तकालय 15000 वर्ग फीट में फैला हुआ है जिसमें करीब 9 लाख पुस्तकें और 4000 लोगों के बैठने की व्यवस्था है।
राजकीय संग्रहालय अजमेर
● इसकी स्थापना भारत सरकार के द्वारा मैंगजीन के किले (अकबर का किला) में 19 अक्टूबर, 1908 को राजपूताना म्यूजियम के नाम से की गई थी।
सरदार म्यूजियम जोधपुर
● स्थापना – वर्ष 1909
● स्थित – जोधपुर
● इस संग्रहालय को सरदार राजकीय संग्रहालय के नाम से भी जाना जाता है।
राजकीय संग्रहालय बीकानेर
● इस संग्रहायल का उद्धाटन महाराजा गंगासिंह के समय तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा 5 नवम्बर, 1937 में गंगा गोल्डन जुबली म्यूजियम के नाम से किया गया था।
● यह संग्रहालय एल.पी. टैस्सीटोरी (इटालियन भाषा विज्ञान डॉ. एल. पी. टैस्सीटोरी) के द्वारा निर्मित है। इस संग्रहालय को गंगा सिंह म्यूजियम व गंगा गोल्डन जुबली म्यूजियम के नाम से भी जाना जाता है।
● इस संग्रहालय में पल्लू से प्राप्त जैन सरस्वती की आकर्षक प्रतिमा स्थापित है।
● राजकीय संग्रहालय बीकानेर में कुल तीन संग्रहालय शामिल है-
(क) करणी म्यूजियम- यह संग्रहालय बीकानेर में जूनागढ़ किले के गंगा निवास में स्थित है।
(ख) सार्दुल म्यूजियम या सार्दुल सिंह संग्रहालय – यह बीकानेर के लालगढ़ महल की दूसरी मंजिल पर स्थित है। यह संग्रहालय 1972 में अस्तित्व में आया था।
(ग) राजकीय संग्रहालय (बीकानेर)।
सिटी पैलेस म्यूजियम जयपुर
● स्थापना – 1959
● स्थित – जयपुर के सिटी पैलेस में महाराजा सवाई मानसिंह संग्रहालय के नाम से भी जाना जाता है।
● इस संग्रहालय (दीवान-ए-खास) में दुनिया के विशालतम चाँदी के दो देग (जार) रखे हुए हैं जो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हैं।
जिनभद्रसूरिज्ञान भंडार
● स्थित – जैसलमेर
● जिनभद्रसूरि ज्ञान भंडार में प्राचीन ग्रंथों का भंडार है।
सिटी पैलेस म्यूजियम उदयपुर
● इस संग्रहालय का निर्माण महाराणा अमरसिंह प्रथम के द्वारा करवाया गया था। यह संग्रहालय उदयपुर के सिटी पैलेस में स्थित है।
राजकीय संग्रहालय
● स्थित – उदयपुर
● इस संग्रहालय को राजकीय प्रताप संग्रहालय या प्रताप संग्रहालय भी कहते हैं।
भवानी नाट्यशाला
● स्थित – झालावाड़
● राज्य के रंगकर्म की इस अनुपम धरोहर का निर्माण 1921 में तत्कालीन झालावाड़ रियासत के नरेश भवानी सिंह ने ओपेरा शैली में करवाया।
● शेक्सपियर के लिखे नाटक यहाँ खेले जाते थे।
श्री सरस्वती पुस्तकालय
● स्थित – फतेहपुर, सीकर
● स्थापना – 14 मई, 1910 को वासुदेव गोयनका तथा बजरंग लाल लोहिया ने की थी।
पुस्तक प्रकाश पुस्तकालय (जोधपुर)
● स्थापना – महाराजा मानसिंह के द्वारा जोधपुर में की गई।
पोथीखाना जयपुर
● स्थापना – वर्ष 1952 में महाराजा सवाई मानसिंह द्वितीय के द्वारा
● स्थित – जयपुर
सरस्वती भण्डार
● स्थित – उदयपुर
रूपायन संस्थान
● स्थित – बोंरुंदा, जोधपुर
● कला मर्मज्ञ पद्म भूषण कोमल कोठारी (1929-2004) द्वारा स्थापित यह सुप्रसिद्ध कला संस्थान जोधपुर जिले के बोरुंदा नामक स्थान पर स्थित है।
बिड़ला तकनीकी म्यूजियम
● स्थापना – 1954
● स्थित – पिलानी, झुंझुनूँ
● यह म्यूजियम पिलानी के बिड़ला इस्टीट्यूट आफ टेक्नॉलोजी एंड साइंस संस्थान (BITS) के परिसर में स्थित है।
● बिड़ला तकनीकी म्यूजियम भारत का प्रथम उद्योग व तकनीकी म्यूजियम है।
● इस म्यूजियम में स्थित कोयले की खानों (कोलमाइन्स) का प्रदर्शन पूरे एशिया में प्रसिद्ध है।
राजस्थानी शोध संस्थान
● यह संस्थान राजस्थान के जोधपुर जिले के चौपासनी नामक स्थान पर स्थित है।
राजस्थानी साहित्य अकादमी
● स्थापना – वर्ष 1950
● स्थित – उदयपुर
● मासिक पत्रिका – मधुमती
● मीरा पुरस्कार – सर्वोच्च पुरस्कार
● सुधीन्द्र पुरस्कार – काव्य रचना के लिए
● रांगेय राघव पुरस्कार – कथा, उपन्यास
● देवराज उपाध्याय पुरस्कार – निबन्ध, आलोचना
● कन्हैयालाल सहल पुरस्कार – विविध विधाएँ
● सुमनेश जोशी पुरस्कार – प्रथम प्रकाशित कृति पर
● शम्भूदयाल सक्सेना पुरस्कार – बाल साहित्य
● राजस्थानी साहित्य की उन्नति एवं प्रचार प्रसार हेतु राजस्थानी साहित्य अकादमी के द्वारा मधुमति नाम से मासिक पत्रिका प्रकाशित की जाती है।
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी
● स्थापना – वर्ष 1969
● स्थित – जयपुर
● यह हिंदी भाषा में विभिन्न विषयों पर मानक एवं मौलिक पुस्तकों का प्रकाशन करती है। हिंदी बुनियाद इसकी द्विमासिक पत्रिका है। निदेशक –डॉ बजरंग लाल सैनी।
राजस्थान संस्कृत अकादमी
● स्थापना – वर्ष 1980
● स्थित – जयपुर
● निदेशक – संजय झाला।
राजस्थान उर्दू अकादमी
● स्थापना – वर्ष 1979
● स्थित – जयपुर
राजस्थान सिंधी अकादमी
● स्थापना – वर्ष 1979
● स्थित – जयपुर
● राजस्थान सिंधी अकादमी के द्वारा रिहाण नाम से वार्षिक पत्रिका प्रकाशित की जाती है।
राजस्थान ब्रजभाषा अकादमी
● स्थापना – 1985
● स्थित – जयपुर
● प्रकाशन – त्रैमासिक पत्रिका ब्रज शतदल
राजस्थान पंजाबी भाषा अकादमी
● स्थापना – वर्ष 2006
● स्थित – श्रीगंगानगर
श्री रामचरण प्राच्य विद्यापीठ एवं संग्रहालय
● स्थापना – वर्ष 1960 आचार्य रामचरण शर्मा व्याकुल के द्वारा
● स्थित – जयपुर
● इस संग्रहालय में 18 करोड़ वर्ष पुरानी पेड़ों की छाल और तने से लेकर शंख, शीप, ताम्र पत्र, प्रस्तर तथा अंतिम मुगल शासक बहादुर शाह जफर के बड़े बेअ मिर्जा अब्दुल्ला का वैवाहिक आमंत्रण पत्र (मूल काबेन नामा) तक सरक्षित हैं।
जवाहर कला केंद्र
● अस्सी के दशक में जयपुर में स्थापित इस कला केंद्र की सभी नौ कला दीर्घाओं में वास्तुविद् चार्ल्स कोरिया की मौलिकता और अलंकारिता झलकती है।
● उद्घाटन – 8 अप्रैल 1993 राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा द्वारा इस बह़ुआयामी कला संस्थान में ऑडियो विजुअल विभाग, चाक्षुव कला विभाग, संगीत एवं नृत्य तथा नाटक विभाग के अलावा एक समृद्ध पुस्तकालय भी है जहाँ कला-संस्कृति से संबंध हजारों दुर्लभ ग्रंथ संग्रहीत हैं।
पंडित झाबरमल शोध संस्थान
● स्थापना – वर्ष 2000 में प्रसिद्ध इतिहासकार एवं पत्रकार पद्म भूषण पंडित झाबरमल शर्मा (1888-1983) की स्मृति में
● स्थित – जयपुर
● के.के. बिड़ला फाउण्डेशन द्वारा प्रतिवर्ष बिहारी पुरस्कार दिया जाता है।
● प्रारम्भ में यह पुरस्कार राजस्थान के लेखक की उत्कृष्ट हिन्दी
कृति पर दिया जाता था परन्तु वर्ष 2003 से इसमें हिन्दी के
साथ राजस्थानी को भी सम्मिलित कर लिया गया है।
अन्य अध्ययन सामग्री
महत्वपूर्ण प्रश्न
हमीर रासो के लेखक कौन हैं?
हमीर रासो की रचना जोधराज ने की थी।
चेतवानी रा चुंगटिया नामक पुस्तक किसने लिखी?
इस कलाकृति के निर्माता केसरी सिंह बारहट थे।
राजस्थानी साहित्य को कितने भागों में बांटा गया है?
सम्पूर्ण प्राचीन राजस्थानी साहित्य को 4 मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है।